फ़ॉलोअर

गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

 इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!




इसलिए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए भी नहीं क्योंकि, कुछ लोगों की राय में न तो यह जाने वाला और न ही आने वाला साल ‘हमारा’ है, लिहाजा हमे कुछ और सोचना चाहिए।


मान लिया, लेकिन एक साल के रूप में किसी कालखंड की धार्मिक बुनियाद में पड़े बगैर यह जायजा लेना इसलिए मजेदार है कि भाई बीते साल को क्या नाम दें और कल से दस्तक देने वाले आगत साल के लिए मन में किस तरह का स्पेस बनाए ?


चूंकि हम भारतीयों की सोच ज्यादातर मामलों में पारंपरिक होती है, इसलिए चीजों को नई नजर से देखना, समझना उसे पारिभाषित करना हमे बेकार का शगल लगता है। यूं कहने को इस बार भी तमाम लोग निवर्तमान वर्ष की शास्त्रीय समीक्षा में जुटे हैं।


बनिए के बही खाते की तरह हानि-लाभ का हिसाब पेश किया जा रहा है। कुछ ज्यादा समझदार लोगों ने नए साल के चौघडिए को अपने ढंग से बांचने और सेट करने की तैयारी भी शुरू कर दी है। लेकिन बाकी दुनिया बीत रहे साल और देहरी के बाहर खड़े साल को कछ अलग...


और दिलचस्प अंदाज में देख और समझने की कोशिश भी कर रही है। और ये अंदाज पूरे साल को महामारी के स्यापे के तौर पर देखने और छाती कूटने से जुदा है।


'Dictionary.com ने पाठको के सामने यह सवाल उछाला कि साल 2020 को अगर एक शब्द में पारिभाषित करना हो तो कैसे करेंगे?

वजह यह कि न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया  #COVID19  की महामारी से जूझती रही है। हमने साक्षात महसूसा कि कैसे एक अत्यंत सूक्षम वायरस ने पूरे विश्व को अपनी जीवन शैली बदलने पर विवश कर दिया।

यह बात अलग है कि अपने हिंदी वाले ऐसे पचड़ो में यह मानकर पड़ते ही नहीं कि बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय। बहरहाल जो जवाब मिले, वो वाकई मजेदार हैं।


पहला शब्द था - अभूतपूर्व (Unprecedented) आशय ये कि 2020 में जो कुछ घटा, वह दुनिया के लिए एकदम असाधारण और अप्रत्याशित था।


दूसरा शब्द था - पेचीदा (Entangled) साल। यानी पूरा वर्ष कई उलझनो में फसा हुआ रहा।


तीसरा शब्द था - अनूठा (Hellacious) यानी अपनी तमाम नकारात्मकताओं के बाद भी पूर्ववर्ती सालों से काफी अलग।


चौथा था-सर्वनाशी (Apocalyptic) अर्थात ऐसा साल जिसने काफी कुछ मिटाकर रख दिया।


पांचवा शब्द था – अव्यवस्था से भरा (Omnishambles), यह शब्द दरअसल ब्रिटेन में बोली जाने वाली चालू अंग्रेजी का है। इसलिए हिंदी अनुवाद में थोड़ा फर्क हो सकता है। यहां अनुवाद की प्रमाणिकता से ज्यादा अहम बात ये है कि इस बीत रहे साल को हमने किस रूप में अनुभूत किया या कर रहे हैं?


आने वाली पीढियों  को यह वर्ष किस रूप में याद रहेगा या वो इसे याद करना चाहेंगी?


पूर्वजों की मूर्खताओं के रूप में या मानवनिर्मित आपदाओं को  न्यौतने के रूप में?


मानव सभ्यता की असहायता के रूप में या फिर मनुष्य मात्र के अहंकार को मिली सजा के रूप में।


इस दृष्टि से सोचें तो वर्तमान 21 वीं सदी का यह पहला साल रहा, जिसने पूरी दुनिया को एक साथ भीतर तक हिला कर रख दिया।


ऐसा किसी हद तक पिछली सदी में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जरूर हुआ था। लेकिन कुछ देश तब भी उससे अछूते रहे थे।


अलबत्ता कोरोना के रूप में एक वायरस ने साबित कर दिया कि मानव सभ्यता उसके आगे कितनी बौनी है, परमाणु हथियार भी एक वायरस के प्रकोप के आग कितनी मामूली है। यह बात अलग है कि मनुष्य इस वायरस का भी तोड़ खोज रहा है, बल्कि खोज ही लिया है।


लेकिन यह अलार्म कायम रहेगा कि हम अपने आप के अलावा भावी जैविक राक्षसों से अभी कई लड़ाईयां लड़नी है। ये लड़ाईयां धर्मोंन्माद? नस्ली विद्वेष, जमीन के लिए युद्धों और बाजार पर वैश्विक वर्चस्व की लड़ाइयों से ज्यादा बड़ी और मनुष्य के अस्तित्व को बचाने की जिद से भरी होंगी। 


काल अनन्त है, इसिलए स्वयं पीछे मुडकर नही देखता। यह बावरा मन मनुष्य ही है, जो काल के आगे पीछे देखता है। डरता है, बहकता है फिर भी धीरे-धीरे आगे सरकता है। काल के आगे सिर झुकाते हुए भी उसे चुनौती देने का जब-तब दुस्साहस करता है।


हम एक सदी को इतिहास के आकलन की सुविधा की दृष्टि से हम दशकों में बांट लेते हैं। लेकिन यहां भी एक दिक्कत है। सदी के पहले दशक को क्या कहें?


पहली दहाई की मुश्किल यह है कि उसमें कई बार बहुत कुछ ऐसा घटता या छिपा होता है, जो आगे के नौ दशको के लिए रॉ मटेरियल की तरह काम करता है।इसलिए उसका नामकरण जरा कठिन है। अंग्रेजी में सदी के पहले दो दशकों के लिए बोलचाल की भाषा में दो शब्द सामने आए। पहला है 'The Ought' यानी ‘कुछ भी’ और दूसरा है 'The Naught' यानी शरारती ।हिंदी में इन्हें क्या कहा जाए, आप तय करें। 


ये लोग वर्ष 2020 की बैंलस शीट अपने ढंग से बना रहे हैं। बनाते रहेंगे। क्योंकि वह भी एक आधुनिक कर्मकांड है। उसके अपने-अपने एंगल है और रहेंगे। इससे हटकर अब कछ घंटो बाद ही लैंड करने वाले नए साल यानी 2021 के बारे में भी सोचें।


कोरोना की मार से खुद को सहलाता रहने वाला ये साल कुछ 'रोमाटिक' भी होगा, क्योंकि यह 21 वीं सदी का 21 वां साल होगा। यानी स्कूल-कॉलेज के हैंग ओवर से बाहर निकलने का साल। 


जो नहीं निकले, उन्हें झिंझोड़ने वाला साल, जीवन की सच्चाइयों से उनींदी आंखों के साथ दो-चार होने का साल।


आगत साल इस बात की ताकीद होगा कि वर्तमान सदी अब यह कहने की स्थिति में नहीं रहेगी कि मेरी उमर ही क्या है!


यह सदी के वयस्क होने के शुरूआती साल भी है।


बूढ़ा दिसम्बर जवां जनवरी के कदमों में बिछ रहा है,

लो इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है..!


-ब्रम्हराक्षस








सोमवार, 28 दिसंबर 2020

परत



’परत’ मूलतः एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें प्रेम को राजनीति के एक उपकरण बन जाने के आख्यान को कुशलता से अंकित किया गया है। प्रेम के काम मूलक स्वरूप के परे भी जो प्रेम के अन्य अनेक स्वरूप है उनमें से कुछ को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में उसकी गहनता और विस्तार के साथ उकेरा गया है।

'परत' व्यक्ति के स्तर पर प्रेम की कहानी है तो समाज के स्तर पर राजनीतिक चुनाव कथा। इन दो कथा सरिताओं का प्रवाह एक दूसरे से सर्वथा विलग प्रतीत होता है किन्तु  यहीं  लेखक इस रचना को अलग आयाम पर ले जाते हैं। दोनों ही कथाओं में एक जैसी घटनाएं घटित होती हैं, बस उनका आयाम अलग है।

यत पिण्डे  तत ब्रम्हाण्डे।

एक कथा के माध्यम से लेखक ने दूसरी कथा के घटित होने के परिवेश और मानस का सफल अंकन तो किया ही है।

’परत’ को पढ़ना सर्वथा नवीन आयाम में पहुँचा देता है। यहाँ यथार्थ अपने पूरे प्रभाव के साथ तो है किंतु कोई आग्रह नहीं है। यहाँ अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और आस्थाओं की समझ है और तदनुसार उसका निर्वहन भी। किंतु नवीन विचारों के प्रति उतना ही स्वागत भाव भी।

नायिका शिल्पी प्रेम के कारण दुर्गति को प्राप्त हो जाती है किंतु प्रेम के प्रति कहीं भी विरोध का स्वर मुखर नहीं होता। परम्परागत विवाह को श्रेयस्कर मानते हुए भी कहीं प्रेम विवाह को कमतर नहीं कहा गया है।

भारत के ग्रामीण परिवेश में स्थानीय निकायों के चुनावों में किस प्रकार गोलबंदी होती है और किस प्रकार विभिन्न विचारधाराओं पर वैयक्तिक संबंध भारी पड़ते है और किस प्रकार राजनीति आपस में मतभेद और विघटन उत्पन करती है, इसका सजीव चित्रण मिलता है। जो लोग ग्रामीण जीवन के सम्पर्क में हैं वे जानते हैं कि यद्यपि भारतीय ग्राम बहुत बदले हैं किन्तु अभी भी यांत्रिक नहीं हुए हैं। अभी भी संवेदनायें जीवित हैं। अभी भी राजनीति पर आपसी प्रेम भारी है। आज भी वहाँ संस्कृति और बंधुत्व स्पंदित है।

पुस्तक की एक विशेषता यथार्थवादी चित्रण के बावजूद आशावादिता का निरूपण भी है। यहाँ आकर पुस्तक एक प्रेरक दस्तावेज बन जाती है। पुस्तक तथाकथित स्थापित मूल्यों का अनुसरण नहीं करती बल्कि एक नई परम्परा का सूत्रपात करती है। एक ऐसी परम्परा जिसका बीजारोपण प्रेमचंद जी ने किया था किंतु, संभवतः एजेंडे के चलते, जिसका निर्वहन और विकास उन्होने स्वयं नहीं किया।

पुस्तक की एक अन्य विशेषता इसमें खलनायक का अभाव है। लेखक ने यह निरूपित करने में सफलता पाई है कि ’लव जिहाद’ का प्रेरक तत्व मजहब न होकर 'अर्थ' है। ये अलग बात है कि यह 'अर्थ' जो देता है वह ऐसा क्यों करता है? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है समाज में पनपी कुरीतियों को सभी लोग पहचानते हैं किंतु अलग-अलग कारणों से उसके प्रतिरोध में अक्षम है। यहां पर लेखक कुशलता पूर्वक यह दर्शाने में सफल रहे हैं कि युवा पीढ़ी में यद्यपि यह चेतना अधिक है और पुरानी पीढ़ी अपने परिवेश में ढल जाने के कारण इस चेतना को कम अनुभव कर पा रही है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विभिन्न समाजों में विवाह और स्त्रियों के प्रति व्याप्त विचारों में पर्याप्त अंतर है और इसी कारण व्यवहार और अपेक्षा में भी पर्याप्त अंतर है। रचना में इस अंतर को अत्यंत कौशल से व्यक्त किया गया है।

नायिका की एक शिक्षित सहेली श्रृद्धा है जो कि धर्म और मान्यताओं को स्वीकारने वाली एक सामान्य लडकी है तो वहीं उसकी ननद फातिमा है जो निरक्षर होकर भी अत्यंत व्यवहारिक है, अपनी सीमाओं को जानती है और श्रृद्धा से कहीं साहसी और क्रांतिकारी है। ये तीन लड़कियाँ इस कहानी की धुरी है। इन्ही के माध्यम से लेखक ने प्रतिपाद्य विषय को सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अगर ये दोनों न हों तो शिल्पी भी निर्मला होकर रह जाये।

उपन्यास फिल्मों द्वारा दशकों के प्रयासों से सफलतापूर्वक स्थापित प्रेम विषयक स्थापनाओं का प्रभावी भंडाफोड़ करता है।

यूँ तो फिल्मों के (कु) प्रभाव से कोई भी बचा नहीं है फिर भी किशोर मानस पर तो यह घातक हो जाता है। अत: यह उपन्यास नवयुवतियों एवं किशोरियों  द्वारा प्रेम और उसकी परिणति को स्पष्ट रूप से जानने हेतु अवश्य पठनीय है क्योंकि यह बतायेगा कि प्रेम पात्र की वास्तविक स्थिति जाने बिना उसके साथ चल देना कितनी भयावह स्थितियाँ उत्पन कर दे सकता है।

उपन्यास की उत्कृष्ट विषय वस्तु और रोचक वर्णन लेखक के अनुभव और एक शिक्षक की आशाओं से समृद्ध हुए हैं  किन्तु कतिपय स्थलों पर सम्पादक ने कतर ब्योंत कर दी है। संभवतः कतिपय प्रसंग किंचित विस्तार की अपेक्षा करते थे। किन्तु फिर मानव रचित ऐसी कौन सी रचना है जो सर्वथा सम्पूर्ण हो।

आज के समय में यह कृति महत्त्वपूर्ण है। रोचकप्रेरक और पठनीय है।

शनिवार, 8 दिसंबर 2018


अरे ...रे..रे ..गज़ब.
प्रेम कथा और प्रेत कथा पढ़ने में मुझे सदैव समान भय लगता है. यही कारण है कि मित्रों के इस आग्रह पर कि पुस्तक में अवधी-भोजपुरी का प्रचुर प्रयोग हुआ है मैंने ‘इश्क बकलोल’ खरीद तो ली लेकिन जब भी पढ़ने का प्रयास किया, एकाध पृष्ठ से आगे न बढ़ पाया.
किन्तु विगत माह में कई अपराध थ्रिलर चट कर जाने के उपरांत अनायास ही स्वाद बदलने के लिए किसी गंभीर साहित्य के स्थान पर इस पुस्तक को पढ़ने का साहस जुटाया.
एक अध्याय पढ़ा तो फिर तो पुस्तक छोड़ते न बना, पूरी पुस्तक एक ही बैठक में ख़त्म करके उठा. पुस्तक निश्चय ही केवल  प्रेम कथा नहीं है. प्रेम कथा तो एक माध्यम था देश में कई स्थानों पर चल रही क्षेत्रवाद की दूषित सोच से पनप रहे सामाजिक ताने बाने को नष्ट करने वाले नासूर को उजागर करना. लेखक अपने लक्ष्य में शत प्रति शत सफल रहे हैं.
लेखक ने उपन्यास को एक विस्तृत दृष्टिकोण से लिखा है जो अंत तक किसी भी स्थल पर संकुचित नहीं होने पाता. इतना सधा हुआ लेखन यदि प्रथम उपन्यास ही में हो तो लेखक से भविष्य में उत्कृष्ट रचना कर्म की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं.
भाषा की दृष्टि से उपन्यास में मराठी और भोजपुरी का प्रयोग कुछ अधिक है, यद्यपि इससे कथानक को आंचलिक पुट मिला और परिवेश तथा मनोदशा अधिक स्वाभाविकता से प्रकट हुईं, किन्तु इन दोनों ही भाषाओँ को न जानने वाले पाठक को दोहरा व्यवधान भी झेलना पड़ता है. हालाँकि, मराठी का अनुवाद भी दे ही दिया गया है लेकिन सब-टाइटल वाली फिल्म से वह संतुष्टि कहाँ? इतना होने पर भी मुझे इन दोनों भाषाओं का प्रयोग कहीं खटका नहीं, बल्कि इससे मैं समृद्ध ही हुआ.
इस उपन्यास की एक खूबी इसके जीवंत चरित्र हैं. कोई भी पात्र अस्वाभाविक और गढ़ा हुआ नहीं लगता- सभी पात्र प्रामाणिक लगते हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के परिवेश को लेखक पूर्ण सटीकता से उकेरने में सफल रहे हैं. काशी दर्शन इस उपन्यास का एक अतिरिक्त आकर्षण है.
जिस बात ने मुझे सर्वाधिक मोह लिया, वह है पुस्तक की द्रुत गति. पुस्तक में कहानी इतनी तेजी से भागती है कि पाठक को गर्दन उठाने की मोहलत नहीं देती. उत्सुकता सदैव बनी रहती है और अंत तक अंत का अनुमान लगा पाना यदि असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है. पूरी तरह से यह पुस्तक एक थ्रिलर का आनंद देती है यद्यपि है प्रेम कथा ही.

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018


“......उद्धव मन न भये दस बीस”
एक प्रमुदित प्रशंसक के उद्गार


श्री सत्य व्यास की नवीनतम कृति चौरासी एक असाधारण सूफी प्रेमाख्यान है जो स्थूल और सूक्ष्म अथवा लौकिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथ प्रवाहित है. जिसमें एक छोर पर निश्छल प्रेम है तो दुसरे छोर पर वीभत्स घृणा. ऐसी कृति हिंदी में अगर दूसरी है तो मेरी नज़र से नहीं गुज़री.
उपन्यास में जहाँ  स्थूल /लौकिक अर्थों में एक सजीव दृश्यात्मक प्रेमकथा स्पंदित है जिस पर बन रही फिल्म उसको कितना उजागर कर पायेगी, कहना कठिन है. वहीँ   सूक्ष्म/ अध्यात्मिक अर्थों में जो प्रेम अंगड़ाईयाँ ले रहा है उसकी अनुभूति अनिर्वचनीय है. वह तो अनुभव की ही वस्तु है. प्रथम अध्याय से ही जो स्वत्व का जो भाव प्रस्फुटित होता है वह क्रमशः विस्तृत होते हुए अंतिम अध्याय में प्रेम की रहस्यात्मकता को उसके सम्पूर्ण प्रभाव के साथ प्रकट करता है.
हर अध्याय को लेखक ने एक सूफियाना शीर्षक दिया है जो अध्याय के कथ्य को तो उजागर करता ही है एक अनुपम औत्सुक्य भी सृजित करता है. यूँ तो लेखक अपनी विगत दोनों रचनाओं में भी अध्यायों के नामों का पुस्तक के नाम से एक गहन सम्बन्ध स्थापित करते रहे हैं जो कि इस कृति में भी उपस्थित है. लेकिन इस कृति में यह कला  एक अलग ही आयाम छूती है – कथ्य को परिवेश प्रदान करती है. यह अनन्य है. अपूर्व है.
नगर को सूत्रधार की भूमिका में प्रस्तुत करने का प्रयोग सफल है. क्योंकि यह जिस सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है, राष्ट्र की जिस अवधारणा का द्योतक है उस भाव को अन्यथा व्यक्त करना और इस सहानुबंध को स्थापित करना कदाचित इतना सहज भी न रहता और इतना संप्रेषणीय भी न रहता.  
लेखक अपने सूत्र वाक्यों के लिए भी जाने जाते हैं. इस कृति में उनका वह दार्शनिक स्वरूप अपने उत्कर्ष पर है जो कि इस रचना के तेवर के सर्वथा अनुकूल है.
भारतीय संस्कृति में 84 विभिन्न गूढ़ अर्थों से संपृक्त है. आश्चर्य यह है कि हर उस गूढार्थ का चित्रण इस उपन्यास में कहीं न कहीं मिलता है. इतने छोटे कलेवर में इतने विशद भावों  की ऐसी  सटीक  व्यंजना कर ले जाने की लेखक अतुल्य प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हूँ. 
  भाषा पर लेखक का असाधारण आधिकार है तभी तो इस उपन्यास का हर अध्याय इतना सजीव है कि जैसे आप फिल्म देख रहे हों. भाषा का ऐसा अनोखा प्रयोग है कि आप पढ़ते नहीं देखते हैं.
वैसे तो उपन्यास विशेषताओं का आगार है किन्तु दृश्यात्मकता इस उपन्यास की  प्रमुख विशेषत बन कर उभरी है. हर अध्याय, हर प्रसंग और हर भाव इतने दृश्यात्मक रूप से आता है कि पाठक के सम्मुख सजीव चित्र उभर आता है.
एक अन्य विशेषता जिसका उल्लेख किये बिना रहा नहीं जाता, वह इस उपन्यास के चरम उत्कर्ष वाले अध्याय की अवस्थिति है. आपको याद पड़ता है आपने किस उपन्यास/ फिल्म में क्लाइमेक्स गंगासागर में चित्रित पढ़ा/ देखा हो. गंगा सागर का जो सजीव चित्रण इस उपन्यास में मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है. गंगासागर -धर्म, अध्यात्म, रहस्य और प्रेम का अद्भुत प्रतीक बन कर अमिट छाप छोड़ता है.
बरसों बाद एक निर्मल आख्यान पढने को मिला, आभार, सत्य जी.
   

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018


हत्या
हृदयेश (2 जुलाई 1930-31 अक्टूबर 2016) की एक कालजयी रचना

                  हृदयेश का पूरा नाम हृदय नारायण मेहरोत्रा था.
इन्होने  ने गाँठ, हत्या, एक कहानी अंतहीन, सफेद घोड़ा काला सवार, साँड, पुनर्जन्म, दंडनायक, पगली घटी, हवेली सहित 13 उपन्यास लिखे थे. कई कहानी संग्रह और आत्मकथा भी लिखी. उनके उपन्यास ‘सांड़’ और ‘सफेद घोड़ा काला सवार’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साहित्य भूषण और पहल सम्मान से नवाजा जा चुका है.

               ‘हत्या इनका दूसरा उपन्यास था जो  अगस्त १९७१ में प्रकाशित हुआ था. यह उपन्यास अपने विषय, गठन और गहरी अंतर्दृष्टि के कारण हिंदी का एक उत्कृष्ट उपन्यास है. यह आकार में बेशक छोटा है किन्तु इसका परिदृश्य विशाल है. एक साथ ये गहन और विस्तृत दोनो है. आश्चर्य यह है कि गहन  होते हुए भी भटकता नहीं और विस्तृत होते हुए स्थूल नहीं होता.

               ‘हत्या हृदयेश की संवेदनात्मक परिपक्वता का जीवंत दस्तावेज है. स्वतंत्रता के उपरांत हम कहाँ मरते गए और कहाँ दूसरों को मारते गए; किन अपराधों के लिए पुरस्कृत हुए और किन आदर्शों के लिए दण्डित-उपन्यास इन सब की बड़ी निस्संगता से पड़ताल करता है और सब कुछ बड़े रोचक और प्रभावी ढंग से उदघाटित कर देता है .

            ‘हत्या में हत्याओं के इतने विविध प्रकार उदघाटित किये गए हैं कि पाठक सन्न रह जाता है. जैसे जैसे पाठक उपन्यास में धंसता है उसकी चेतना को यह विलक्षण उपन्यास अनेक धरातलों पर जिस आतंक से घेरता है वह लेखक के अद्वितीय कौशल का सशक्त साक्ष्य है.

          एक छोटे से गाँव की ज़िन्दगी को केंद्र बनाकर लिखा गया ये उपन्यास उस समय की सामाजिक स्थिति और परिवेश को अत्यंत सहजता से दृश्यमान कर देता है. विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य की जिजीविषा और छटपटाहट का सजीव चित्र उकेरते हुए भी मजाल है कि हृदयेश कहीं भावुक हो जाएँ. पक्षधरता तो उन्होंने सीखी ही नहीं, वे शोषित को भी उतनी ही निस्पृहता से प्रस्तुत करते हैं जितनी निस्पृहता से एक शोषक को.


                               आइये, आज इस महान कथाकार की पुण्यतिथि पर उसका स्मरण करें.

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018


 खाकी वर्दियों का जंगल

श्री ककरलापुड़ी नरसिम्हा योग पतंजलि जिन्हें प्यार से सभी के. एन. वाय. पतंजलि कहा करते थे, तेलुगु के सिद्धहस्त कथाकारों में गिने जाते हैं. उनकी रचनाओं का तेलुगु साहित्य में विशिष्ट स्थान है. 

उनका चर्चित उपन्यास “खाकी वनम “ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें पुलिस तंत्र के सबसे निचले सोपान पर काम कर रहे पुलिस के सिपाहियों की दयनीय दशा और अमानवीय कार्य अवस्थाओं का जीवंत चित्रण मिलता है. यद्यपि कहानी आन्ध्र प्रदेश के एक कसबे में घटित होती दर्शायी गई है तथापि ये सारे देश के पुलिस तंत्र का प्रतिनिधित्व करती है.


उपन्यास का प्रारम्भ अर्दली की ड्यूटी भुगता रहे एक सिपाही के वर्णन से होता है जिसे पुलिस अधीक्षक (एस. पी.) की पत्नी द्वारा एक बच्ची की पॉटी धोने का आदेश दिया जाता है. इस एक घटना के माध्यम से इन पुलिसकर्मियों की अमानवीय कार्य स्थिति का सटीक, प्रभावी और सजीव दृश्य प्रस्तुत करते हुए लेखक ने पुलिस कर्मियों के विद्रोह की भूमिका रच दी है.


उपन्यास बहुत तेज गति से चलता है और पुलिस तंत्र में अंतर्निहित शोषण और पक्षपात का सजीव दस्तावेज बन कर उभरता है.


उपन्यास एक थ्रिलर का आनंद देता है. आद्योपांत कथा अत्यंत द्रुत गति से भागती है और पाठक को सांस लेने की मोहलत नहीं देती.


वर्ष १९८० में तेलुगु में प्रकाशित इस पुस्तक का रोचक हिंदी अनुवाद डॉ. के. वी. नरसिंह राव द्वारा किया गया है जो अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली से “खाकी वर्दियों का जंगल” के नाम से  प्रकाशित हुआ था. पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण भी उपलब्ध है .


इस पुस्तक को पढना एक झकझोरने वाले अनुभव से गुजरना है .


शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

संवेदनशील कहानियों का गुलदस्ता – The ज़िन्दगी


श्री अंकुर मिश्र की सद्यप्रकाशित पुस्तक उत्कृष्ट कहानियों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें आधुनिक जीवन की परिस्थितियों के मध्य मानवीय संवेदनाओं के अनेक रंग अपनी विशिष्ट आभा से प्रकट हो रहे हैं. पुस्तक दो भागों में है –प्रथम भाग में ६ कहानियां हैं तो द्वितीय भाग में १० लघुकथाएं.
कहानियों में आज की कार्यालयीन संस्कृति का जीवंत चित्रण मिलता है. आज की कार्य संस्कृति के तनाव और उसके मनुष्यों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का अत्यंत सटीक चित्रण इन कहानियों में सजीव रूप में मिलता है. पहली कहानी “अभी जिंदा हूँ मैं”  में मानव के मशीन  बनते जा रहे स्वभाव के मध्य मानवता के बचे रहने की सम्भावना को रेखांकित किया गया है. कहानी श्री नज़ीर अकबराबादी की नज्म “आदमीनामा” का स्मरण करा देती है.
“लाल महत्वाकांक्षाएं” इसी कार्यालयीन संकृति की चूहा दौड़ में फंसे माता-पिता की संतान की दयनीय स्थिति को पूर्ण भयावहता के साथ सामने लाती है. कहानी का अंत इस कहानी को कमजोर करता है. लेखक को इस पर अधिक धीरज से काम करना था.
“आत्महत्या” कहानी एक प्रेरक कहानी है. विषम परिस्थितियों में एक स्त्री के उठ खड़े होने की गाथा. स्त्री स्वातंत्र्य को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हुई सुंदर कहानी.
“द्विसंवाद” और “तबादला” आज के जीवन के दोगलेपन को उजागर करती लघुकथाएं हैं तो “गलत सही” एक प्रश्न खड़ा करती है.
 कहानियों की भाषा सरल लेकिन प्रभावी है. शैली में एक रोचकता है जो पुस्तक को छोड़ने नहीं देती. पुस्तक एक ही बैठक में पठनीय है, बल्कि पढ़ डालने को बाध्य करती है. ये एक ऐसी पुस्तक है जिसे आप बार –बार पढना चाहेंगे क्योंकि एक बार पढने के उपरांत पुस्तक कहीं न कहीं आपसे एक अपनापा स्थापित कर लेगी.
पुस्तक की साज सज्जा और विषयवस्तु इतनी सार्थक है कि इस पुस्तक को आप सहेज कर अपने संग्रह में रखना चाहेंगे.

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

  इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...! इसलि ए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए ...