फ़ॉलोअर

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

...फिर भी


- रमाकान्त मिश्र एवं श्रीमती रेखा मिश्र
कमला देवी ने फिर से सिर झटक कर पूजा में ध्यान लगाने की चेष्टा की। किंतु व्यर्थ। मन बहुत आंदोलित था। बार-बार झुंझलाहट होती थी और ध्यान भटकता था। बहू की मुखरता से अधिक बेटे की चुप्पी व्यथित करती थी।
आखिर एक देवी का जागरण ही तो करना चाहती थीं वे। इस पर बहू का मिजाज ही गर्म हो गया था- हमारे पास इतनी उर्जा नहीं है। किसके पास समय है? फिर लाख से ऊपर का खर्चा। सब आडम्बर है। पूजा करनी है एकांत में कीजिए, मन करे तो मंदिर चली जाइए। इतना कानफोड़ करने की क्या जरूरत है।
कमला देवी आहत हो गई थी। कौन कहता है इतनी टीम टाम करो। थोड़े में भी तो हो सकता है। पहले हर साल करते थे। मां का नाम लेने से कल्याण ही होगा। कोई अपने ऐश-आराम को तो कह नहीं रही थी।
क्या हो गई है जिंदगी? जरा सी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकती। वो तो इनकी सेवा में खटती रही है।  आज बच्चे बड़े हो गए तो अब मेरी क्या जरूरत? ये ठीक ही कहते थे! कमला देवी यादों में डूब गई।
शेखर का तबादला हो गया था। उन्होने कमला से साथ चलने को कहा तो कमला ने कहा था - अभी विशु छोटा है, बहू नौकरी वाली है। कौन इसे पालेगा?
”यार ये इनकी समस्या है।” शेखर ने कहा था
”कैसे बाप हो तुम?” कमला देवी बोली थी, ”ये कोई गैर है, तुम्हारे बेटे बहू हैं।”
”हां, हैं। मैं कब मना कर रहा हूँ, लेकिन इनके बच्चे पालना हमारा दायित्व नहीं है। हम यहां थे तब इनको सहयोग कर रहे थे। अब मुझे बंगलौर जाना है। मुझे तुम्हारी जरूरत है।”
”तुम्हे क्या जरूरत है। तुम कोई बच्चे हो।”
”अरे, वहां अपरिचित शहर में मैं अकेला?”
”और ये जो अकेले रह जाएंगे?”
”ये अकेले कहां है? मियां- बीवी है, बच्चा भी है।”
”अरे कैसी बात करते हो? कोई बड़ा बुजुर्ग चाहिए कि नहीं। वे तो खुद बच्चो हैं। बच्चे की देखभाल क्या जाने।”
”बच्चा पैदा करना जानते हैं, देखभाल करना नहीं जानते।”
”अरे तुम्हे क्या हो गया है?”
”मुझे कुछ नहीं हुआ। तुम्हारी मत मारी गई है। इनको इनकी जिंदगी जीने दो। तुम मेरे साथ चलो।”
”मैं नहीं जाऊँगी। अपने बच्चों को छोड़ कर मैं कही नहीं जाऊँगी।”
”अरे बच्चे सब कुछ है, बच्चों का बाप कुछ नहीं ?”
”देखो फालतू की बहस तो करो मत। मैंने कह दिया मैं नहीं जाऊँगी।”
”अरे तो वहां मेरी देखभाल कौन करेगा?”
”तुम कोई बच्चे हो? अपनी देखभाल खुद नहीं कर सकते हो?”
इसके बाद शेखर के लाख समझाने पर भी कमला जाने को राजी न हुई। यहां तक कि दोनों में खूब कहा सुनी हुई और अत्यंत तनाव के माहौल में शेखर समय से पहले ही बंगलौर चले गए।
और... एक बार गए तो फिर न तो लौटे। न ही कोई फोन किया। न ही कोई पैसा भेजा।
कमला देवी आशा करती थी कि शेखर जैसे यहां रहने पर खर्चा उठाते थे उसी प्रकार पैसा भेजते रहें। किंतु शेखर ने जब कुछ न भेजा तो कमला ने उन्हें फोन किया और पैसो के लिए कहा तो उन्होने जवाब दिया-क्यों? बच्चा दो रोटी भी नहीं दे सकता? और फोन काट दिया। दुबारा कमला देवी फोन न कर पाई।
जब अमित पर घर का खर्चा आन पड़ा तब तनाव बढ़ना शुरू हुआ। लेकिन पिता से खर्चा मांग सकना संभव नहीं था। इस तनाव से वह झुंझलाने लगा और अक्सर मियाँ-बीवी में खटपट हो जाती।
जब भी दोनो में झगड़ा होता कमला देवी सहमी रहती क्योंकि कटाक्ष और रूक्षता तो उनके हिस्से में आती ही थी। लेकिन क्योंकि बच्चा छोटा था तो कमला उनकी जरूरत थी। जैसे-जैसे विशु बड़ा होता गया ये जरूरत कम होती गई। फिर वह स्कूल जाने लगा तब तो कमला बिलकुल अनुपयुक्त हो गई- आखिर बच्चे को क्रेश में या डे बोर्डिंग में डाला जा सकता था।
यों तो कमला देवी का दर्जा नौकरानी से बेहतर कुछ भी न था लेकिन, पोते का मुँह देख कर वह सब भूल जाती और उसकी देखभाल में मगन हो जाती थी।
किंतु धीरे-धीरे हालात बदतर होते गए। सब कुछ करने पर भी कमला देवी को ताने ही मिलते। उनका दुःख दोबाला हो जाता जब अमित चुप्पी साध लेता था।
और कल सांय तो हद हो गई थी। बहू ने अपनी सहेली से कहा था-अरे यार कुछ मत पूछ। एक ही खूसट है बुढ़िया, तभी तो बाऊजी छोड़ गए। जिसकी अपने पति से न निभी उससे ये तो मैं ही हूँ जो निभा रही हूँ।
कमला का गला भर आया आंखों से आंसू छूट गए। हे भगवान-क्या करूँ?
किसी प्रकार पूजा निबटा कर कमला देवी उठीं। एक कप चाय बनाकर पी। कुछ खाने को मन न हुआ। मन बहुत अशांत हो रहा था। जब बेचैनी होने लगी तो वे उठकर टहलने लगी। आखिर में सोचा चलो कुछ देर बाहर टहल लूं तो मन को चैन आ जाए।
ताला लगाकर वे नीचे उतर आई तो अनायास ही टहलते-टहलते मंदिर में पहुँच गई। मंदिर में इक्के दुक्के लोग ही थे। वे भी जाकर हाल के एक कोने में बैठ गईं। हाल ठंडा था, कुछ सुकून अनुभव हुआ। तभी विद्या देवी आकर उनके पास बैठ गईं। वे सिमरनी फेर रही थीं।
कमला देवी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
वे मुस्कुराईं।
”कमला, आज कैसे मंदिर आ गई।”
”बीबीजी, मन नहीं लग रहा था।”
”अरे, मन कैसे लगेगा? अभी तेरी उमर ही क्या है? ये कोई उमर थोड़ी है जोग धरने की।”
”वो बात नहीं है बीबीजी।”
”अच्छा, तो बता क्या बात है?”
कमला मौन रही। क्या बताए।
”बेटे बहू अच्छा व्यवहार नहीं करते? बोझ समझते हैं?”
कमला मौन रही।
”घर-घर की यही कहानी है। विद्या देवी बोली, ”लेकिन तू क्यों यहां पड़ी है। छोड़ सब। अपने मर्द के पास जा। याद रख, औरत का साथी उसका मर्द ही होता है। औलाद उसका साथ नहीं दे सकती। कोई लाखों में एक इज्जत करते हैं, सेवा करते हैं पर साथ वो भी साथ नहीं दे सकते। इसलिए तू शेखर के पास जा। यहां क्या कर रही है ?”
कमला चुप ही रही।
”तूने शेखर से कोई झगड़ा तो नहीं कर रखा” विद्या देवी ने पूछा।
”फिर भी चली जा” कमला के मौन से ही अनुभवी विद्या सब समझ गईं, ”अपने मर्द से क्या मान करना। दो खरी खोटी कहेगा तो सुन लेना। तेरा मर्द है कोई गैर तो नहीं? यहां औलाद की सुनती है वहां मर्द की सुन लेना। आखिर गलती तो तेरी ही है जो यहाँ पड़ी है।”
कमला के आंसू बहने लगे। विद्या देवी ने उसके आंसू पोछे।
”तू मेरी बेटी की तरह है। मैं शेखर को जानती हूँ। बहुत अच्छा लड़का है। तू चली जा।”
”पांच साल हो गए, फोन तक नहीं किया।” कमला अब अपने को रोक न पाई। रो पड़ी।
विद्या देवी उसे अपने गले से लगाए रहीं। वो रोती रही। फिर कुछ जी हल्का हुआ।
”सुन, तू फोन कर। तेरे पास नम्बर तो है?”
कमला ने इंकार में सिर हिलाया।
”शेखर किस विभाग में है।”
”सी डी ए एयर फोर्स में।”
”किस पद पर है?”
”जब गए थे तब डबल ए ओ थे।”
”तू रूक” विद्या देवी ने अपने झोले से फोन निकाला और अपने बेटे को फोन किया।
”विक्की, देख बेटा एक अर्जेंट काम है। तेरा एक दोस्त है न बंगलौर में क्या नाम उसका हां, विराट, तू जरा उसे फोन कर के कह कि बंगलौर में सी डी ए (एयरफोर्स) आफिस में एकाउण्ट आफिसर है शेखर अग्रवाल उसे मैसेज दे दे कि वह मेरे फोन पर अभी बात करें।”
”नही, कुछ बात हैं। बस तू ये काम कर अभी का अभी।”
इसके बाद करीब दस बारह मिनट बाद ही विद्या देवी का फोन बज उठा। फोन पर शेखर था।
”शेखर बेटा मैं विद्या आंटी बोल रही हूँ...................... खुश रह बेटा। तूने पहचान लिया न आंटी को?" उधर से उत्तर सुन कर फिर बोलीं, "बेटा, तेरे से एक काम है। तू मेरी एक रिक्वेस्ट मानेगा?”
”तू अच्छा बेटा है। हाँ...हाँ मैं चाहती हूँ तू कमला से बात कर, उसे अपने पास बुला ले।”
”वो यहीं है मेरे पास तू उससे बात कर ले। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया है, तू उसे माफ कर दे। मैं उसकी ओर से माफी मांगती हूँ। ...नहीं...नहीं... तुम लोग मेरे बच्चे की तरह हो- ले बात कर।”
कमला को फोन देकर विद्या देवी उठ गई। कमला फोन पर कुछ बोल न पाई। बस रोती रही।
”अरे अब रोना बंद कर बेवकूफ। अक्ल आ गई तो ठीक है” दूसरी ओर से शेखर ने कहा- ”मैं उसे फोन कर देता हूँ, तुझे ट्रेन में बैठा देगा। रोती क्यों है अभी तो मैं जिंदा हूँ।”
कमला फफक कर रो पड़ी।
x x x x
”आपने पापा को फोन किया था?” अमित ने पूछा। 
”क्यों?” कमला ने रूक्षता से कहा। 
”उनका फोन आया था, उन्होने आपको बंगलौर बुलाया है।”
कमला चुप रही।
”जरूर इन्होने पापा से शिकायत की होगी।” बहू बोली, ”आपको शर्म नहीं बाती जरा-जरा सी बात की लगाई -बुझाई करते हुए।”
कमला चुप ही रही। तभी फोन की घंटी बजी। शेखर का फोन था। पुत्र ने मोबाइल उसकी ओर बढ़ा दिया।
”हैलो”
”हां, सुनो मैंने कल की राजधानी में आरक्षण करा दिया है। शाम को 3:30 बजे हजरत निजामुद्दीन से चलेगी और परसों शाम को 4:00 बजे यशवंतनगर पहुँचेगी। तुम तो कभी राजधानी से चली नहीं हो तो इसलिए बता रहा हूँ कि इसमें चाय नाश्ता खाना सब फ्री होता है। वैसे फ्री तो नहीं होता, टिकट में उसके पैसे पहले ही ले लेते हैं पर लम्बी यात्रा में कोई दिक्कत नहीं होती। ए सी है तो कम्बल बगैरह लेकर मत चलना। वहीं  मिल जाएगा। ज्यादा की जरूरत हो तो मांग लेना। सामान कम रखना। यहां बंगलौर में ठंड नहीं पड़ती है तो स्वेटर बगैरह मत लाना।”
”जी।”
”अच्छा, फोन अमित को दो।”
फिर शेखर अमित को कुछ निर्देश देने लगे।
”ये एकदम अचानक पापा को क्या हुआ?” बहू बोली थी। 
”पता नहीं”
”लेकिन विशु का क्या होगा? अभी वो अकेले रहने के काबिल नहीं।”
”यार तुम कुछ दिन की छुट्टी ले लो।”
”छुट्टी? इंपोसिबिल। तुम पापा को फोन करो। अभी मम्मी को नहीं भेज सकते।”
”मैं नहीं रूक सकती।” कमला ने रूक्ष स्वर में कहा।
”आपको हमारी कोई पर्वाह नहीं? आपको इस नन्हे से बच्चे की कोई पर्वाह नहीं जो हमेशा आपसे चिपका रहता है।दादी-दादी कहते जिसकी जबान नहीं थकती।”
”पर्वाह न होती तो इतने दिन अपने पति की अवहेलना कर यहां क्यों पड़ी रहती?” कमला देवी बोली।
”तो अब?... अब क्या हो गया?”
”जो मेरा यहां का दायित्व था मैंने पूरा कर दिया। अब मैं तुम लागों पर भार हूँ। विशु बड़ा हो गया है। उसका अधिकांश समय स्कूल में कटता है। वे वहां अकेले हैं। यहां पर तुम लोगों का पूरा परिवार है। अब मेरी वहां जरूरत है।”
उसके जवाब ने तो जैसे सबकी बोलती बंद कर दी।
”लेकिन ये स्कूल से आकर कया करेगा? कहां रहेगा?
”उसकी तुम व्यवस्था करो। अब वह छः साल का हो गया है।”
”लेकिन आप कुछ दिन और रूक जाइए। कम से कम विशु की कोई व्यवस्था होने तक।”
एक क्षण को कमला कुछ बोल न पाई। लेकिन तभी उसके दिमाग में कई बातें कौंध गईं। तत्काल ही उनके मुख से निकला,”एक बार मैं उनकी अवहेलना कर चुकी हूँ, दुबारा ये गलती नहीं कर सकती।”
फिर सब मौन हो गए। अत्यंत तनाव भरे माहौल में कमला देवी अगले रोज बैंगलोर के लिए रवाना हो गईं। 
x x x x
अंतिम चाय सर्व कर सब कैटरिंग वाले पैन्ट्री में चले गए और कीर्तन करने लगे। कीर्तन समाप्त होते होते ट्रेन यशवंतनगर स्टेशन पर पहुँच गई। बैग कंधे पर लटका कर सूटकेस खींचते हुए वह धीरे-धीरे लाइन में लगी-लगी प्लेटफार्म पर उतर गई। सामान लेकर वह ट्रेन से थोड़ी हट कर खड़ी हो गई। तभी उसकी दृष्टि शेखर पर पड़ी।
शेखर कुछ दुबले लग रहे थे। गंगा जमुनी केश, घनी लेकिन छोटी मूँछें भी गंगा जमुनी हो रही थीं। सफेद जमीन पर ग्रे चेक की कमीज और मिलिटरी ग्रीन रंग की पेंट में कमला को शेखर अत्यंत स्मार्ट लगे। उसकी आंखे डबडबा आई। गला रूंध गया। तभी शेखर की नजर कमला पर पड़ी और वे थमक कर खड़े हो गए। फिरोजी जमीन पर पोल्का डॉटस की शिफान की साड़ी में कमला उन्हें बेहद खूबसूरत लगी। वे लपक कर उसके पास आ गए फिर उसे देख कर आंसू भरी आंखों से मुस्कुराए।
कमला सिसक कर उनसे लिपट गई।
कुछ देर दोनों यो ही लिपटे खड़े रहे। फिर शेखर ने कुली को सामान उढ़ाने का इशारा किया और कमला को कंधे से थाम कर बाहर की ओर चल पड़े।
घर तक पहुँचने तक दोनो मौन रहे।
घर पहुँचकर अनायास ही दोनो आलिंगनबद्ध हो गए। फिर तो समय जैसे वापस 30  साल पहले के काल में पहुँच गया। दोनों जैसे सद्यविवाहित नवयुगल हों। एक दूसरे में खोते चले गए। संतुष्टि भरे अभिसार के पश्चात दोनों का तन मन शीतल हो गया। स्नान करने के पश्चात वे रात्रिभोजन के लिए बाहर चले गए।
साढ़े दस बजे के पश्चात लौटे वो पुनः एक दूसरे में खो गए और फिर गहरी नींद में उतर गए। दोनों को ही ऐसी गहरी नींद वर्षों बाद आई थी। प्रातः चाय पीने के उपरांत दोनों में बात होने लगी।
”मैंने अपना तबादला स्वयं करवाया था।” शेखर ने राज खोला।
”क्यों?”
”क्योंकि तुम मुझे बिल्कुल विस्मृत कर चुकी थी। बच्चे की सार संभाल और घर गृहस्थी में थक कर चूर हो जाती थी तो मुझे लगा कि हमें अब अपनी गृहस्थी अलग करनी ही होगी। वरना घुटन के कारण मुझे कोई न कोई भयंकर बीमारी हो जाएगी।”
”कभी क्रोध आता था कभी दया। आखिर अब तुम युवा तो नहीं रह गई थी तो उतनी उर्जा भी तुम्हारे अंदर नहीं बची थी। जितना काम तुम पहले सहजता से कर लेती थी उतना अब करना संभव नहीं था। फिर मैं चाहता था कि जब हम युवा थे तब तो घर की जिम्मेदारियों में ही उलझे रह गए, कुछ एन्जवाय न कर पाए तो अब एन्जवाय करें।”
”मुझे अपराध बोध होता था कि तुमसे विवाह कर तुम्हे लाया तो किचन थमा दिया। तब से अब तक किचन ही तुम्हारा ठिकाना बन गया। पहले सास की सेवा की अब बहू की कर रही थी। मैं चाहता था कि तुम्हें इससे मुक्ति दिलाऊँ और दुनिया घुमाऊँ। लेकिन दिल्ली में रहते तो ये संभव नहीं था। क्योंकि तुम इसके लिए तैयार ही नहीं थी।
”इसलिए तबादला करवाया लेकिन तुम्हारे इंकार से सब व्यर्थ हो गया। अब तबादला तो हो ही चुका था उसे रोका नहीं जा सकता था क्योंकि वो तो मेरे ही कहने पर हुआ था, अतः मैं बंगलौर चला आया। लेकिन बहुत दुखी रहा। फिर मैंने सोचा कि तुम तो आओगी नहीं क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में औरत की जिंदगी बच्चे पालने में ही है। तो मैंने अपने समय का सदुपयोग करना शुरू किया। कन्नड़ सीखी, तमिल सीखी और लिखना शुरू किया। अब तक चार उपन्यास लिख कर छपवा चुका हूँ। पहले समय नहीं कटता था फिर इस सब में इतना व्यस्त हो गया कि पूछो मत। लेकिन यार हाँ..बेचैनी फिर भी रहती थी। कहीं न कहीं एक कसक हमेशा कचोटत़ी रहती थी।”
कमला मंत्रमुग्ध सी सुन रही थी।
”तुम कितना और क्या सोचते थे और मैं कभी कुछ नहीं समझ पाई। लेकिन कल रात मुझे लगा कि सुख तो मुझे तुम्हारे साथ ही मिल सकता है।”
”ये तुम ठीक कहती हो। कल तुम्हारे आने के बाद से समय तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहा है। कल रात जितनी गहरी नींद आई पिछले पांच सालों में कभी नहीं आई थी।”
”मैं भी यही कहना चाहती थी। इस समय मैं खुद को कितना तरोताजा और युवा अनुभव कर रही हूँ बता नहीं सकती। जैसे बिलकुल हल्की हो गई हूँ, हवा में उड़ रही हूँ।”
शेखर ने पास खिसक कर कमला को अपने साथ सटा लिया।
”अब हम एक सप्ताह तक तुम्हें बंगलौर और मैसूर घूमाएंगे।”
”हूँ।”
”हनीमून मनाने का इरादा है।”
”अब?”
”देर से सही। सुबह का भूला अगर शाम को घर पर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते न।”

कमला ने अत्यंत अनुराग से शेखर को देखा और सहमति में सिर हिला दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

  इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...! इसलि ए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए ...