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रविवार, 19 जून 2016

मेरे पिता - मेरे परमेश्वर

मेरे पिता पंडित बंशी धर मिश्र एक ऋषि हैं।  उनका सारा जीवन हम लोगों के लिए ही रहा।  उन्होंने जीवन में कभी अपने लिए कुछ भी नहीं किया। बहुत ही सादा जीवन लेकिन बहुत ही ऊँचे विचार।  मुझे उनका अपार स्नेह प्राप्त हुआ।  यह अलग बात है कि न उन्होंने कभी कुछ अपने श्रीमुख से कहा और न मैं ही कभी अपने भाव व्यक्त कर सका।  पर उनका नेह उनके नयनो से व्यक्त होता रहा। 


मैं अभी बहुत छोटा था शायद १० साल का रहा हूँ, उन्होंने मेरे लिए गर्म सूट सिलवाया था।  अपने लिए उन्होंने कभी सूट नहीं सिलवाया।
जब मैं हाई स्कूल में पास हुआ तो उन्होंने अपनी घडी उतार कर मुझे पहना दी।  जब मैं कॉलेज में गया तो उन्होंने मुझे साइकिल खरीद कर दी।  घर में जो पहला स्कूटर उन्होंने खरीदा वह मेरे लिए था।
मेरे पिता कोई धन्ना सेठ नहीं लेकिन आज तक मेरी एक भी इच्छा उन्होंने अधूरी नहीं रहने दी।

उन्होंने कभी अपना प्यार जताया तो शब्दों में नहीं जताया।  अपने व्यवहार से जताया, अपने उत्सर्ग से जताया।  कभी अपने गले तो नहीं लगाया लेकिन अपने ह्रदय में बैठाया।हमारे अवध में एक रिवाज है - बड़े बेटे का नाम नहीं लिया जाता। मेरे पिता कभी मेरा नाम नहीं लेते। 

हाँ, वह अपना नेह कभी शब्दों  से व्यक्त नहीं करते।

 

मुझे एक घटना याद आती है। तब तक मेरे दोनों बेटे हो चुके थे।  मैं अपने कार्यालय में किसी अर्जेंट  काम  में फँस गया।  उनदिनों आज की तरह मोबाइल तो  थे नहीं लैंडलाइन फ़ोन भी सब जगह उपलब्ध नहीं थे।  मेरे घर में उस  समय फ़ोन नहीं था। मेरे ऑफिस का फ़ोन नंबर तो घर में पता था लेकिन जंहाँ मैं था वहाँ का फ़ोन नंबर घरवालों को पता नहीं था। पिताजी ने मेरे भाइयों को मेरे सभी दोस्तों के घर दौड़ा दिया।  मेरे ऑफिस में भी फ़ोन करते रहे, लेकिन वहां कोई हो तो जवाब मिले। 
खैर, रात लगभग ११ बजे मैं लौटा तो वे बाहर टहल रहे थे।  मेरे स्कूटर खड़े करते ही बरस पड़े।  मैं चुपचाप सुनता रहा।  यह भी न कह सका कि जरूरी काम था।
अगले दिन हमारे घर में फ़ोन लग गया। 

 

आज मुझे गर्व  है कि मुझे उनकी छत्रछाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त है।
रामचरित मानस मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि उसमें एक ओर राम हैं जिन्होंने पिता के वचन के पालन के लिए अयोध्या का राजपाठ ठुकरा कर वनवासी होना सहर्ष स्वीकारा  तो दूसरी ओर मेघनाद हैं  जिन्होंने पिता के लिए प्राण उत्सर्ग कर दिए।  
पिता को कोई क्या दे सकता है ? आखिर यह शरीर तक तो उनका ही दिया हुआ है। हमारी शिक्षा, हमारे संस्कार, हमारा व्यवसाय, हमारी सफलता - सबके के पीछे पिता ही तो हैं।
सब कुछ दीन्हा आपने भेंट करूँ क्या नाथ
नमस्कार की भेंट लो जोड़ूँ मैं दोनों हाथ। 
 

 




 
 
 
 
 
 
 

 

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