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रविवार, 19 जून 2016

मेरे पिता - मेरे परमेश्वर

मेरे पिता पंडित बंशी धर मिश्र एक ऋषि हैं।  उनका सारा जीवन हम लोगों के लिए ही रहा।  उन्होंने जीवन में कभी अपने लिए कुछ भी नहीं किया। बहुत ही सादा जीवन लेकिन बहुत ही ऊँचे विचार।  मुझे उनका अपार स्नेह प्राप्त हुआ।  यह अलग बात है कि न उन्होंने कभी कुछ अपने श्रीमुख से कहा और न मैं ही कभी अपने भाव व्यक्त कर सका।  पर उनका नेह उनके नयनो से व्यक्त होता रहा। 


मैं अभी बहुत छोटा था शायद १० साल का रहा हूँ, उन्होंने मेरे लिए गर्म सूट सिलवाया था।  अपने लिए उन्होंने कभी सूट नहीं सिलवाया।
जब मैं हाई स्कूल में पास हुआ तो उन्होंने अपनी घडी उतार कर मुझे पहना दी।  जब मैं कॉलेज में गया तो उन्होंने मुझे साइकिल खरीद कर दी।  घर में जो पहला स्कूटर उन्होंने खरीदा वह मेरे लिए था।
मेरे पिता कोई धन्ना सेठ नहीं लेकिन आज तक मेरी एक भी इच्छा उन्होंने अधूरी नहीं रहने दी।

उन्होंने कभी अपना प्यार जताया तो शब्दों में नहीं जताया।  अपने व्यवहार से जताया, अपने उत्सर्ग से जताया।  कभी अपने गले तो नहीं लगाया लेकिन अपने ह्रदय में बैठाया।हमारे अवध में एक रिवाज है - बड़े बेटे का नाम नहीं लिया जाता। मेरे पिता कभी मेरा नाम नहीं लेते। 

हाँ, वह अपना नेह कभी शब्दों  से व्यक्त नहीं करते।

 

मुझे एक घटना याद आती है। तब तक मेरे दोनों बेटे हो चुके थे।  मैं अपने कार्यालय में किसी अर्जेंट  काम  में फँस गया।  उनदिनों आज की तरह मोबाइल तो  थे नहीं लैंडलाइन फ़ोन भी सब जगह उपलब्ध नहीं थे।  मेरे घर में उस  समय फ़ोन नहीं था। मेरे ऑफिस का फ़ोन नंबर तो घर में पता था लेकिन जंहाँ मैं था वहाँ का फ़ोन नंबर घरवालों को पता नहीं था। पिताजी ने मेरे भाइयों को मेरे सभी दोस्तों के घर दौड़ा दिया।  मेरे ऑफिस में भी फ़ोन करते रहे, लेकिन वहां कोई हो तो जवाब मिले। 
खैर, रात लगभग ११ बजे मैं लौटा तो वे बाहर टहल रहे थे।  मेरे स्कूटर खड़े करते ही बरस पड़े।  मैं चुपचाप सुनता रहा।  यह भी न कह सका कि जरूरी काम था।
अगले दिन हमारे घर में फ़ोन लग गया। 

 

आज मुझे गर्व  है कि मुझे उनकी छत्रछाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त है।
रामचरित मानस मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि उसमें एक ओर राम हैं जिन्होंने पिता के वचन के पालन के लिए अयोध्या का राजपाठ ठुकरा कर वनवासी होना सहर्ष स्वीकारा  तो दूसरी ओर मेघनाद हैं  जिन्होंने पिता के लिए प्राण उत्सर्ग कर दिए।  
पिता को कोई क्या दे सकता है ? आखिर यह शरीर तक तो उनका ही दिया हुआ है। हमारी शिक्षा, हमारे संस्कार, हमारा व्यवसाय, हमारी सफलता - सबके के पीछे पिता ही तो हैं।
सब कुछ दीन्हा आपने भेंट करूँ क्या नाथ
नमस्कार की भेंट लो जोड़ूँ मैं दोनों हाथ। 
 

 




 
 
 
 
 
 
 

 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

आधुनिक शिक्षा


वर्षों पूर्व एक बाल कविता लिखी थी, आज मेरा बेटा उसे खोज लाया।  सादर  प्रस्तुत  है।

http://www.moderneducation.co/wp-content/uploads/2015/02/creativity.jpgआगार सूचनाओं का
भंडार  परिभाषाओं का,
सूत्रों की तोता रटन्त
शिक्षा संसार आज का।

शिक्षा उसे कैसे कहें
देती न हो जो संस्कार,
उपाधि पाकर भी है मानव
काम का न काज का।

भूगोल पढ़ता है कभी
पढ़ता  कभी इतिहास है,
हतोत्साहित, भ्रष्ट, व्याकुल
शिक्षित मानव आज का।

ज्ञान जिसका ध्येय हो
और लक्ष्य मानव धर्म हो,
ऐसी शिक्षा हो तो होगा
नव निर्माण समाज का।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

अक्षुण्ण प्रेरणा राम

श्रीजानकीहृदयसम्राट युगों युगों से भारतभूमि की प्रेरणा रहे हैं। जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं जिसके समुचित संचालन के लिए उच्चतम प्रतिमान इस प्रेरणा के अप्रतिहत स्रोत से प्राप्त न हो सके।  यही कारण है कि राम इस धरा के स्पंदन बन अभिवादन से अध्यात्म तक सर्वत्र व्याप्त हैं। उनके अगम विस्तार के गहन और उच्च्तर स्तरों तक पहुँचने की तो मेरी सामर्थ्य नहीं और न ही उनके ईश्वरीय स्वरुप का निरूपण कर सकने का साहस।  यहाँ तो उनके सर्वसुलभ चरित से सहज प्लावित होते प्रेरणा निर्झर के अविकल प्रवाह से कुछ बूँदें संजोने की अभिलाषा ही है जो ऐसा दुस्साहस कर रहा हूँ,  क्योंकि मेरा विश्वास है कि आज के जीवन में प्रेरणा की निरन्तर आवश्यकता बनी  हुई है और मेरे प्रभु इतने उदार हैं कि  मेरी धृष्टता देख उसी प्रकार मुस्कुरा देंगे जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र की चंचलता देख कर मुस्कुरा देते हैं। 

               राम के जीवन का प्रत्येक सोपान सम्पूर्ण मानवता के लिए अप्रतिहत प्रेरणा और सर्व हितकारी शिक्षाओं का सहज बोधगम्य उदाहरण है।

               कौशल्यानन्दन, अपने प्रारम्भिक जीवन से जैसे कह रहे हों कि घरेलू परिस्थितियां विपरीत हो सकती हैं।  संभव है आपको वह  प्यार दुलार न मिले जिसके आप अधिकारी हैं।  हो सकता है आपका परिवार आपके साथ न हो यहाँ तक कि  आपके पिता भी आपके पक्ष में न हों। आप भले ही उन परिस्थितियों को परिवर्तित न कर सकते हों, किन्तु, सब कुछ विपरीत होने पर भी आप निज आचरण से उन  परिस्थितियों का स्वयं पर विपरीत प्रभाव पड़ने से रोक सकते हैं।  क्योंकि  परिस्थितियों पर भले ही आपका वश न हो किन्तु उन परिस्थितियों पर आप कैसी प्रतिक्रिया करते हैं इस पर आपका मात्र आपका ही नियंत्रण होता है।

             दशरथनन्दन, का वनगमन भली भांति स्पष्ट करता है कि पुत्र को पिता का सर्वदा ही आदर करना चाहिए और उनके यश की वृद्धि के प्रयास तथा  उनके वचन का मान रखना चाहिए, चाहे पिता अपने पुत्र को वह सब न दे पाए हों जो पुत्र का अधिकार था। पुत्र को अपने वचन या कर्म से पिता को असहज स्थिति में नहीं डालना चाहिए, उसे उनके लिए धर्मसंकट की स्थिति नहीं बनने देनी चाहिए।

           भरताग्रज, यह  प्रेरणा देते हैं कि बड़े भाई को किस प्रकार छोटे भाई के स्नेह, मान और अधिकार की रक्षा करनी होती है।  छोटा भाई भले ही स्नेहवश कुछ भी क्यों न चाहता हो, बड़े भाई को सर्वथा उसके हित और कल्याण का ही कार्य करना चाहिए।

        राघव, शिक्षित होने की पराकाष्ठा हैं।  इतनी प्रबल जिज्ञासा  कि गुरु सर्वस्व सौंप कर कृतार्थ हों, इतना अभ्यास कि गुरु की सीमाएं असीम हो जाएँ और  ऐसा लाघव कि  गुरु की प्रतिष्ठा कालातीत हो जाये।

        अहिल्यातारक, यह स्थापित करते हैं कि जब -जब प्राचीन मान्यताएं अमानवीय हो जाएँ तो उनका अतिक्रमण कर नवीन मर्यादाएं कैसे गढ़ी जाएँ।

        सारंगपाणि, न्याय का उच्च्तम प्रतिमान स्थापित करते हैं।  न्याय के समक्ष छोटा - बड़ा, ब्राह्मण -शूद्र  कुछ नहीं होता। उन्होंने ब्राह्मण  रावण  और शूद्र शम्बूक  दोनों को दण्डित किया।

           रावणारि, मानव की असीमित संभावनाओं का उद्घोष हैं।  वे दिखाते हैं कि बाधाएं चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, आपके साधन कितने ही अपर्याप्त क्यों न हों, आपके समक्ष कितनी ही बड़ी शक्ति क्यों न हो - उससे निर्भय हो  जूझ जाना ही आपका कर्तव्य है।

         सुग्रीवमित्र, इस बात की प्रेरणा देते हैं कि मित्र प्राप्त  करने चाहिए, मित्रों के दोषों की अनदेखी कर उनका हित करना चाहिए और उनके उत्थान का प्रयास करना चाहिए।

          राजाराम, यह प्रतिमान स्थापित करते हैं कि किस प्रकार एक राजा के लिए उसका स्वयं का कुछ भी नहीं होता - वह मात्र  मर्यादा के समुचित पालन का प्राधिकारी, दण्डाधिकारी एवं कार्यकारी होता है।  इस प्रक्रिया में उसे कुछ भी होम करना पड़ सकता है, फिर चाहे वह वस्तु, विचार या व्यक्ति उसको कितने ही प्रिय क्यों न हों। 

        श्रीराम, भगवान् शिव के अन्यतम भक्त हैं और महादेव स्वयं श्रीराम के। रामेश्वर ही रामकथा के प्रथम ज्ञाता हैं। इस प्रकार रामचरित इस बात का जागृत प्रमाण है कि भक्ति कैसे की जाती है -ऐसे कि भगवान् स्वयं आपके भक्त हो जाएँ।  

         हनमेंद्र, सिखाते हैं कि किस  प्रकार अपने  उपकारकर्ता का ऋण स्वीकारना चाहिए।  किस प्रकार सेवक का सम्मान करना चाहिए और किस प्रकार उसे दूसरों  से सम्मान प्राप्त करने का अवसर देना चाहिए।

         लक्ष्मणाग्रज, अपने कनिष्ठ भ्राता को किस प्रकार स्वयं से अभिन्न मानना चाहिए, किस प्रकार उसको स्वयं को व्यक्त करने का अवसर देना चाहिए और किस प्रकार उसके दोष के लिए उसको किसी भी प्रकार से दोषी न मानते हुए भी  दण्ड हेतु  स्वयं को आगे कर उसकी रक्षा करनी चाहिए का उदाहरण स्वयं प्रस्तुत करते हैं।

       जानकीनाथ, काल के आर- पार प्रेम का सर्वोच्च प्रतिमान रचते हैं।  भार्या  के प्रति एकनिष्ठ  समर्पण और उसके लिए समर का आयोजन प्रत्येक में वे अद्वितीय है, अनुपम हैं, अतुल्य हैं- तभी वे जानकीनाथ हैं।

सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम - सीताराम - सीताराम - सीताराम-  .....।

 -रामनवमी २०७३ वि.


बुधवार, 13 अप्रैल 2016

मेरे पति - 2

पति-पत्नी किस प्रकार एक दूसरे का सम्बल बन सकते हैं और किस प्रकार एक दूसरे के लिए सार्थक प्रेरणा हो सकते हैं, यही इस कहानी का संदेश है। साभार :  गृहशोभा, दिल्ली प्रैस।


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

मेरे पति



पति-पत्नी किस प्रकार एक दूसरे का सम्बल बन सकते हैं और किस प्रकार एक दूसरे के लिए सार्थक प्रेरणा हो सकते हैं, यही इस कहानी का संदेश है। साभार :  गृहशोभा, दिल्ली प्रैस।


सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

पहाड़ की बेटी

पहाड़ की एक लड़की की अदम्य जिजीविषा की अनुपम कथा।

वर्षा थी कि रूकने का नाम नहीं ले रही थी। पिछले
24 घण्टों से अनवरत जारी थी। पहाड़ों पर वर्षा बहुत
असुविधायें खड़ी करती है। पहाड़ ध्वस्त होते हैं और
उफनती नदियां क्या कुछ नहीं बहा ले जाती। जन जीवन
अस्त-व्यस्त हो उठता है।

निरंतर बरसते पानी ने वृंदा की बेचैनी बढ़ा दी थी।
वृंदा बहुत व्यग्र थी। खबर आई थी कि चमोली में ऊपर
कहीं भूस्खलन हुआ था और मार्ग पूर्णतः अवरूद्ध हो गया
था। वह अनंत को ले कर व्यग्र थी। अनंत जिस क्षेत्र में
गया हुआ था वहां पर भयंकर भूस्खलन हुआ था और
तीन गांव धरा के गर्भ में समा गये थे। उसके पास कोई
संपर्क नहीं था। मोबाइल का सम्पर्क पूरी तरह कट
चुका था। वृंदा का मस्तिष्क आशंकाओं का गढ़ बना
हुआ था। उसके मन से प्रत्येक क्षण यही दुआ निकलती
थी-हे भगवान अनंत को कुछ न हुआ हो। जैसे-जैसे
समय गुजर रहा था वृंदा की घबराहट और बेचैनी
बढ़ती ही जा रही थी। किस देवी-देवता की मन्नत
वह नहीं मांग चुकी थी ? लेकिन मन था कि किसी भी
प्रकार आश्वस्त न होता था। अंततः वृंदा को लगा कि
अगर वह ऐसे ही निष्क्रिय बैठी रही तो उसका सिर फट
जायेगा। तो क्या करे ? उसे अनंत की खोज में निकलना
होगा।

उसने संस्था के और गांव के लोगों की एक बैठक
बुलाई और उनसे अपना निर्णय कहा । उसने उनसे
सहायता की याचना की लेकिन दो लोगों को छोड़ कर
कोई भी साथ जाने को तैय्यार न हुआ। वृंदा उन्ही के
साथ निकल पड़ी।

रह-रह कर होती वर्षा से चलना दूभर हो रहा था।
मार्ग पर फिसलन थी अतः गति बहुत कम थी। रात्रि को
उन्होने कैम्प लगाया। रात गहराती जा रही थी। वृंदा की
आंखों में नींद नही थी। उसे लोगों की कृतघ्नता खल
रही थी। कैसे हर व्यक्ति ने इस अभियान पर निकलने से
जान छुड़ा ली थी। और मुंहफट गौरा ने तो कह ही दिया
था ”तू क्यों इतनी पागल हो रही है। कौन है वो तेरा ?“
क्या कोई किसी का कुछ हो तभी उसकी सहायता
की जाये ? तो ये लोग कौन थे अनंत के? क्यों वह सबके
लिये रात-दिन जुटा रहता था? चाहता तो आराम की
जिंदगी भी काट सकता था वो? कैसे नाशुक्रे लोग हैं?
वृंदा की हताशा जाती न थी। कौन है वो तेरा ? इस
वाक्य में कितनी जुगुप्सा थी कितना व्यंग्य था एक तरह
का लांछन। कौन है वो मेरा ? उसके मस्तिष्क में अनंत
से प्रथम भेंट का चित्र उभरा।

”मामाजी बस भी कीजिए“ वृंदा बोली, ”आपको याद
नहीं पिछली बार कैसे व्यक्ति से बात चली थी“
”मुझे याद है बेटी वह एक नकारा व्यक्ति था जो
सिर्फ तुम्हारी कमाई पर ऐश करना चाहता था।“
”फिर?“
”लेकिन यह ऐसा व्यक्ति नहीं है।“ मामाजी वृंदा को
रोकते हुये बोले, ”मैंने पूरी जानकारी कर ली है। अनंत
एक पर्यावरणविद है और उसे पहाड़ पर रहने में कोई
आपत्ति नहीं है। बल्कि वह तो उत्साहित है।“
”पहाड़ देखा नहीं होगा” वृंदा व्यंग्य सहित बोली।
”हाँ, ये सच है। किन्तु मेरा विश्वास जानो वह बहुत
ही होनहार युवक है।“
”तो फिर विदेश क्यों नहीं गया ?“
”तुम क्यों नहीं गई ?“
”मैं तो पागल हूँ। मुझे तो पहाड़ में शिक्षा का प्रसार
करने का जुनून है।“
”वह पागल तो नहीं है लेकिन उसे देश सेवा का

जुनून अवश्य है। 

आगे के घटनाक्रम के लिए निम्नलिखित पर क्लिक करें। 

https://drive.google.com/file/d/0B7OG6_zQAHC_X052Nnc4azEzUjg/view?usp=sharing

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

...फिर भी


- रमाकान्त मिश्र एवं श्रीमती रेखा मिश्र
कमला देवी ने फिर से सिर झटक कर पूजा में ध्यान लगाने की चेष्टा की। किंतु व्यर्थ। मन बहुत आंदोलित था। बार-बार झुंझलाहट होती थी और ध्यान भटकता था। बहू की मुखरता से अधिक बेटे की चुप्पी व्यथित करती थी।
आखिर एक देवी का जागरण ही तो करना चाहती थीं वे। इस पर बहू का मिजाज ही गर्म हो गया था- हमारे पास इतनी उर्जा नहीं है। किसके पास समय है? फिर लाख से ऊपर का खर्चा। सब आडम्बर है। पूजा करनी है एकांत में कीजिए, मन करे तो मंदिर चली जाइए। इतना कानफोड़ करने की क्या जरूरत है।
कमला देवी आहत हो गई थी। कौन कहता है इतनी टीम टाम करो। थोड़े में भी तो हो सकता है। पहले हर साल करते थे। मां का नाम लेने से कल्याण ही होगा। कोई अपने ऐश-आराम को तो कह नहीं रही थी।
क्या हो गई है जिंदगी? जरा सी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकती। वो तो इनकी सेवा में खटती रही है।  आज बच्चे बड़े हो गए तो अब मेरी क्या जरूरत? ये ठीक ही कहते थे! कमला देवी यादों में डूब गई।
शेखर का तबादला हो गया था। उन्होने कमला से साथ चलने को कहा तो कमला ने कहा था - अभी विशु छोटा है, बहू नौकरी वाली है। कौन इसे पालेगा?
”यार ये इनकी समस्या है।” शेखर ने कहा था
”कैसे बाप हो तुम?” कमला देवी बोली थी, ”ये कोई गैर है, तुम्हारे बेटे बहू हैं।”
”हां, हैं। मैं कब मना कर रहा हूँ, लेकिन इनके बच्चे पालना हमारा दायित्व नहीं है। हम यहां थे तब इनको सहयोग कर रहे थे। अब मुझे बंगलौर जाना है। मुझे तुम्हारी जरूरत है।”
”तुम्हे क्या जरूरत है। तुम कोई बच्चे हो।”
”अरे, वहां अपरिचित शहर में मैं अकेला?”
”और ये जो अकेले रह जाएंगे?”
”ये अकेले कहां है? मियां- बीवी है, बच्चा भी है।”
”अरे कैसी बात करते हो? कोई बड़ा बुजुर्ग चाहिए कि नहीं। वे तो खुद बच्चो हैं। बच्चे की देखभाल क्या जाने।”
”बच्चा पैदा करना जानते हैं, देखभाल करना नहीं जानते।”
”अरे तुम्हे क्या हो गया है?”
”मुझे कुछ नहीं हुआ। तुम्हारी मत मारी गई है। इनको इनकी जिंदगी जीने दो। तुम मेरे साथ चलो।”
”मैं नहीं जाऊँगी। अपने बच्चों को छोड़ कर मैं कही नहीं जाऊँगी।”
”अरे बच्चे सब कुछ है, बच्चों का बाप कुछ नहीं ?”
”देखो फालतू की बहस तो करो मत। मैंने कह दिया मैं नहीं जाऊँगी।”
”अरे तो वहां मेरी देखभाल कौन करेगा?”
”तुम कोई बच्चे हो? अपनी देखभाल खुद नहीं कर सकते हो?”
इसके बाद शेखर के लाख समझाने पर भी कमला जाने को राजी न हुई। यहां तक कि दोनों में खूब कहा सुनी हुई और अत्यंत तनाव के माहौल में शेखर समय से पहले ही बंगलौर चले गए।
और... एक बार गए तो फिर न तो लौटे। न ही कोई फोन किया। न ही कोई पैसा भेजा।
कमला देवी आशा करती थी कि शेखर जैसे यहां रहने पर खर्चा उठाते थे उसी प्रकार पैसा भेजते रहें। किंतु शेखर ने जब कुछ न भेजा तो कमला ने उन्हें फोन किया और पैसो के लिए कहा तो उन्होने जवाब दिया-क्यों? बच्चा दो रोटी भी नहीं दे सकता? और फोन काट दिया। दुबारा कमला देवी फोन न कर पाई।
जब अमित पर घर का खर्चा आन पड़ा तब तनाव बढ़ना शुरू हुआ। लेकिन पिता से खर्चा मांग सकना संभव नहीं था। इस तनाव से वह झुंझलाने लगा और अक्सर मियाँ-बीवी में खटपट हो जाती।
जब भी दोनो में झगड़ा होता कमला देवी सहमी रहती क्योंकि कटाक्ष और रूक्षता तो उनके हिस्से में आती ही थी। लेकिन क्योंकि बच्चा छोटा था तो कमला उनकी जरूरत थी। जैसे-जैसे विशु बड़ा होता गया ये जरूरत कम होती गई। फिर वह स्कूल जाने लगा तब तो कमला बिलकुल अनुपयुक्त हो गई- आखिर बच्चे को क्रेश में या डे बोर्डिंग में डाला जा सकता था।
यों तो कमला देवी का दर्जा नौकरानी से बेहतर कुछ भी न था लेकिन, पोते का मुँह देख कर वह सब भूल जाती और उसकी देखभाल में मगन हो जाती थी।
किंतु धीरे-धीरे हालात बदतर होते गए। सब कुछ करने पर भी कमला देवी को ताने ही मिलते। उनका दुःख दोबाला हो जाता जब अमित चुप्पी साध लेता था।
और कल सांय तो हद हो गई थी। बहू ने अपनी सहेली से कहा था-अरे यार कुछ मत पूछ। एक ही खूसट है बुढ़िया, तभी तो बाऊजी छोड़ गए। जिसकी अपने पति से न निभी उससे ये तो मैं ही हूँ जो निभा रही हूँ।
कमला का गला भर आया आंखों से आंसू छूट गए। हे भगवान-क्या करूँ?
किसी प्रकार पूजा निबटा कर कमला देवी उठीं। एक कप चाय बनाकर पी। कुछ खाने को मन न हुआ। मन बहुत अशांत हो रहा था। जब बेचैनी होने लगी तो वे उठकर टहलने लगी। आखिर में सोचा चलो कुछ देर बाहर टहल लूं तो मन को चैन आ जाए।
ताला लगाकर वे नीचे उतर आई तो अनायास ही टहलते-टहलते मंदिर में पहुँच गई। मंदिर में इक्के दुक्के लोग ही थे। वे भी जाकर हाल के एक कोने में बैठ गईं। हाल ठंडा था, कुछ सुकून अनुभव हुआ। तभी विद्या देवी आकर उनके पास बैठ गईं। वे सिमरनी फेर रही थीं।
कमला देवी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
वे मुस्कुराईं।
”कमला, आज कैसे मंदिर आ गई।”
”बीबीजी, मन नहीं लग रहा था।”
”अरे, मन कैसे लगेगा? अभी तेरी उमर ही क्या है? ये कोई उमर थोड़ी है जोग धरने की।”
”वो बात नहीं है बीबीजी।”
”अच्छा, तो बता क्या बात है?”
कमला मौन रही। क्या बताए।
”बेटे बहू अच्छा व्यवहार नहीं करते? बोझ समझते हैं?”
कमला मौन रही।
”घर-घर की यही कहानी है। विद्या देवी बोली, ”लेकिन तू क्यों यहां पड़ी है। छोड़ सब। अपने मर्द के पास जा। याद रख, औरत का साथी उसका मर्द ही होता है। औलाद उसका साथ नहीं दे सकती। कोई लाखों में एक इज्जत करते हैं, सेवा करते हैं पर साथ वो भी साथ नहीं दे सकते। इसलिए तू शेखर के पास जा। यहां क्या कर रही है ?”
कमला चुप ही रही।
”तूने शेखर से कोई झगड़ा तो नहीं कर रखा” विद्या देवी ने पूछा।
”फिर भी चली जा” कमला के मौन से ही अनुभवी विद्या सब समझ गईं, ”अपने मर्द से क्या मान करना। दो खरी खोटी कहेगा तो सुन लेना। तेरा मर्द है कोई गैर तो नहीं? यहां औलाद की सुनती है वहां मर्द की सुन लेना। आखिर गलती तो तेरी ही है जो यहाँ पड़ी है।”
कमला के आंसू बहने लगे। विद्या देवी ने उसके आंसू पोछे।
”तू मेरी बेटी की तरह है। मैं शेखर को जानती हूँ। बहुत अच्छा लड़का है। तू चली जा।”
”पांच साल हो गए, फोन तक नहीं किया।” कमला अब अपने को रोक न पाई। रो पड़ी।
विद्या देवी उसे अपने गले से लगाए रहीं। वो रोती रही। फिर कुछ जी हल्का हुआ।
”सुन, तू फोन कर। तेरे पास नम्बर तो है?”
कमला ने इंकार में सिर हिलाया।
”शेखर किस विभाग में है।”
”सी डी ए एयर फोर्स में।”
”किस पद पर है?”
”जब गए थे तब डबल ए ओ थे।”
”तू रूक” विद्या देवी ने अपने झोले से फोन निकाला और अपने बेटे को फोन किया।
”विक्की, देख बेटा एक अर्जेंट काम है। तेरा एक दोस्त है न बंगलौर में क्या नाम उसका हां, विराट, तू जरा उसे फोन कर के कह कि बंगलौर में सी डी ए (एयरफोर्स) आफिस में एकाउण्ट आफिसर है शेखर अग्रवाल उसे मैसेज दे दे कि वह मेरे फोन पर अभी बात करें।”
”नही, कुछ बात हैं। बस तू ये काम कर अभी का अभी।”
इसके बाद करीब दस बारह मिनट बाद ही विद्या देवी का फोन बज उठा। फोन पर शेखर था।
”शेखर बेटा मैं विद्या आंटी बोल रही हूँ...................... खुश रह बेटा। तूने पहचान लिया न आंटी को?" उधर से उत्तर सुन कर फिर बोलीं, "बेटा, तेरे से एक काम है। तू मेरी एक रिक्वेस्ट मानेगा?”
”तू अच्छा बेटा है। हाँ...हाँ मैं चाहती हूँ तू कमला से बात कर, उसे अपने पास बुला ले।”
”वो यहीं है मेरे पास तू उससे बात कर ले। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया है, तू उसे माफ कर दे। मैं उसकी ओर से माफी मांगती हूँ। ...नहीं...नहीं... तुम लोग मेरे बच्चे की तरह हो- ले बात कर।”
कमला को फोन देकर विद्या देवी उठ गई। कमला फोन पर कुछ बोल न पाई। बस रोती रही।
”अरे अब रोना बंद कर बेवकूफ। अक्ल आ गई तो ठीक है” दूसरी ओर से शेखर ने कहा- ”मैं उसे फोन कर देता हूँ, तुझे ट्रेन में बैठा देगा। रोती क्यों है अभी तो मैं जिंदा हूँ।”
कमला फफक कर रो पड़ी।
x x x x
”आपने पापा को फोन किया था?” अमित ने पूछा। 
”क्यों?” कमला ने रूक्षता से कहा। 
”उनका फोन आया था, उन्होने आपको बंगलौर बुलाया है।”
कमला चुप रही।
”जरूर इन्होने पापा से शिकायत की होगी।” बहू बोली, ”आपको शर्म नहीं बाती जरा-जरा सी बात की लगाई -बुझाई करते हुए।”
कमला चुप ही रही। तभी फोन की घंटी बजी। शेखर का फोन था। पुत्र ने मोबाइल उसकी ओर बढ़ा दिया।
”हैलो”
”हां, सुनो मैंने कल की राजधानी में आरक्षण करा दिया है। शाम को 3:30 बजे हजरत निजामुद्दीन से चलेगी और परसों शाम को 4:00 बजे यशवंतनगर पहुँचेगी। तुम तो कभी राजधानी से चली नहीं हो तो इसलिए बता रहा हूँ कि इसमें चाय नाश्ता खाना सब फ्री होता है। वैसे फ्री तो नहीं होता, टिकट में उसके पैसे पहले ही ले लेते हैं पर लम्बी यात्रा में कोई दिक्कत नहीं होती। ए सी है तो कम्बल बगैरह लेकर मत चलना। वहीं  मिल जाएगा। ज्यादा की जरूरत हो तो मांग लेना। सामान कम रखना। यहां बंगलौर में ठंड नहीं पड़ती है तो स्वेटर बगैरह मत लाना।”
”जी।”
”अच्छा, फोन अमित को दो।”
फिर शेखर अमित को कुछ निर्देश देने लगे।
”ये एकदम अचानक पापा को क्या हुआ?” बहू बोली थी। 
”पता नहीं”
”लेकिन विशु का क्या होगा? अभी वो अकेले रहने के काबिल नहीं।”
”यार तुम कुछ दिन की छुट्टी ले लो।”
”छुट्टी? इंपोसिबिल। तुम पापा को फोन करो। अभी मम्मी को नहीं भेज सकते।”
”मैं नहीं रूक सकती।” कमला ने रूक्ष स्वर में कहा।
”आपको हमारी कोई पर्वाह नहीं? आपको इस नन्हे से बच्चे की कोई पर्वाह नहीं जो हमेशा आपसे चिपका रहता है।दादी-दादी कहते जिसकी जबान नहीं थकती।”
”पर्वाह न होती तो इतने दिन अपने पति की अवहेलना कर यहां क्यों पड़ी रहती?” कमला देवी बोली।
”तो अब?... अब क्या हो गया?”
”जो मेरा यहां का दायित्व था मैंने पूरा कर दिया। अब मैं तुम लागों पर भार हूँ। विशु बड़ा हो गया है। उसका अधिकांश समय स्कूल में कटता है। वे वहां अकेले हैं। यहां पर तुम लोगों का पूरा परिवार है। अब मेरी वहां जरूरत है।”
उसके जवाब ने तो जैसे सबकी बोलती बंद कर दी।
”लेकिन ये स्कूल से आकर कया करेगा? कहां रहेगा?
”उसकी तुम व्यवस्था करो। अब वह छः साल का हो गया है।”
”लेकिन आप कुछ दिन और रूक जाइए। कम से कम विशु की कोई व्यवस्था होने तक।”
एक क्षण को कमला कुछ बोल न पाई। लेकिन तभी उसके दिमाग में कई बातें कौंध गईं। तत्काल ही उनके मुख से निकला,”एक बार मैं उनकी अवहेलना कर चुकी हूँ, दुबारा ये गलती नहीं कर सकती।”
फिर सब मौन हो गए। अत्यंत तनाव भरे माहौल में कमला देवी अगले रोज बैंगलोर के लिए रवाना हो गईं। 
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अंतिम चाय सर्व कर सब कैटरिंग वाले पैन्ट्री में चले गए और कीर्तन करने लगे। कीर्तन समाप्त होते होते ट्रेन यशवंतनगर स्टेशन पर पहुँच गई। बैग कंधे पर लटका कर सूटकेस खींचते हुए वह धीरे-धीरे लाइन में लगी-लगी प्लेटफार्म पर उतर गई। सामान लेकर वह ट्रेन से थोड़ी हट कर खड़ी हो गई। तभी उसकी दृष्टि शेखर पर पड़ी।
शेखर कुछ दुबले लग रहे थे। गंगा जमुनी केश, घनी लेकिन छोटी मूँछें भी गंगा जमुनी हो रही थीं। सफेद जमीन पर ग्रे चेक की कमीज और मिलिटरी ग्रीन रंग की पेंट में कमला को शेखर अत्यंत स्मार्ट लगे। उसकी आंखे डबडबा आई। गला रूंध गया। तभी शेखर की नजर कमला पर पड़ी और वे थमक कर खड़े हो गए। फिरोजी जमीन पर पोल्का डॉटस की शिफान की साड़ी में कमला उन्हें बेहद खूबसूरत लगी। वे लपक कर उसके पास आ गए फिर उसे देख कर आंसू भरी आंखों से मुस्कुराए।
कमला सिसक कर उनसे लिपट गई।
कुछ देर दोनों यो ही लिपटे खड़े रहे। फिर शेखर ने कुली को सामान उढ़ाने का इशारा किया और कमला को कंधे से थाम कर बाहर की ओर चल पड़े।
घर तक पहुँचने तक दोनो मौन रहे।
घर पहुँचकर अनायास ही दोनो आलिंगनबद्ध हो गए। फिर तो समय जैसे वापस 30  साल पहले के काल में पहुँच गया। दोनों जैसे सद्यविवाहित नवयुगल हों। एक दूसरे में खोते चले गए। संतुष्टि भरे अभिसार के पश्चात दोनों का तन मन शीतल हो गया। स्नान करने के पश्चात वे रात्रिभोजन के लिए बाहर चले गए।
साढ़े दस बजे के पश्चात लौटे वो पुनः एक दूसरे में खो गए और फिर गहरी नींद में उतर गए। दोनों को ही ऐसी गहरी नींद वर्षों बाद आई थी। प्रातः चाय पीने के उपरांत दोनों में बात होने लगी।
”मैंने अपना तबादला स्वयं करवाया था।” शेखर ने राज खोला।
”क्यों?”
”क्योंकि तुम मुझे बिल्कुल विस्मृत कर चुकी थी। बच्चे की सार संभाल और घर गृहस्थी में थक कर चूर हो जाती थी तो मुझे लगा कि हमें अब अपनी गृहस्थी अलग करनी ही होगी। वरना घुटन के कारण मुझे कोई न कोई भयंकर बीमारी हो जाएगी।”
”कभी क्रोध आता था कभी दया। आखिर अब तुम युवा तो नहीं रह गई थी तो उतनी उर्जा भी तुम्हारे अंदर नहीं बची थी। जितना काम तुम पहले सहजता से कर लेती थी उतना अब करना संभव नहीं था। फिर मैं चाहता था कि जब हम युवा थे तब तो घर की जिम्मेदारियों में ही उलझे रह गए, कुछ एन्जवाय न कर पाए तो अब एन्जवाय करें।”
”मुझे अपराध बोध होता था कि तुमसे विवाह कर तुम्हे लाया तो किचन थमा दिया। तब से अब तक किचन ही तुम्हारा ठिकाना बन गया। पहले सास की सेवा की अब बहू की कर रही थी। मैं चाहता था कि तुम्हें इससे मुक्ति दिलाऊँ और दुनिया घुमाऊँ। लेकिन दिल्ली में रहते तो ये संभव नहीं था। क्योंकि तुम इसके लिए तैयार ही नहीं थी।
”इसलिए तबादला करवाया लेकिन तुम्हारे इंकार से सब व्यर्थ हो गया। अब तबादला तो हो ही चुका था उसे रोका नहीं जा सकता था क्योंकि वो तो मेरे ही कहने पर हुआ था, अतः मैं बंगलौर चला आया। लेकिन बहुत दुखी रहा। फिर मैंने सोचा कि तुम तो आओगी नहीं क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में औरत की जिंदगी बच्चे पालने में ही है। तो मैंने अपने समय का सदुपयोग करना शुरू किया। कन्नड़ सीखी, तमिल सीखी और लिखना शुरू किया। अब तक चार उपन्यास लिख कर छपवा चुका हूँ। पहले समय नहीं कटता था फिर इस सब में इतना व्यस्त हो गया कि पूछो मत। लेकिन यार हाँ..बेचैनी फिर भी रहती थी। कहीं न कहीं एक कसक हमेशा कचोटत़ी रहती थी।”
कमला मंत्रमुग्ध सी सुन रही थी।
”तुम कितना और क्या सोचते थे और मैं कभी कुछ नहीं समझ पाई। लेकिन कल रात मुझे लगा कि सुख तो मुझे तुम्हारे साथ ही मिल सकता है।”
”ये तुम ठीक कहती हो। कल तुम्हारे आने के बाद से समय तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहा है। कल रात जितनी गहरी नींद आई पिछले पांच सालों में कभी नहीं आई थी।”
”मैं भी यही कहना चाहती थी। इस समय मैं खुद को कितना तरोताजा और युवा अनुभव कर रही हूँ बता नहीं सकती। जैसे बिलकुल हल्की हो गई हूँ, हवा में उड़ रही हूँ।”
शेखर ने पास खिसक कर कमला को अपने साथ सटा लिया।
”अब हम एक सप्ताह तक तुम्हें बंगलौर और मैसूर घूमाएंगे।”
”हूँ।”
”हनीमून मनाने का इरादा है।”
”अब?”
”देर से सही। सुबह का भूला अगर शाम को घर पर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते न।”

कमला ने अत्यंत अनुराग से शेखर को देखा और सहमति में सिर हिला दिया।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

नतोहम रामवल्लभाम

- रमाकान्त मिश्र एवं श्रीमती रेखा मिश्र
      वन प्रांतर में प्रवेश करते ही महारानी को अपूर्व शांति का अनुभव हुआ। ऐसा नहीं था कि वन पूर्णतः निस्पंद था किंतु पक्षियों की चहचहाहट और वृक्षों की सरसराहट से मानो संगीत की सृष्टि होती थी। थोड़ी दूर चलकर रथवान ने रथ रोक दिया। अश्वारोही अंगरक्षक आगे खड़े हुए थे। अंगरक्षकों के नायक ने आकर निवेदन किया, ”महारानी की जय हो। आर्यों के नियमानुसार अब आगे अश्व, रथ यहां तक कि पादुकाएं भी वर्जित हैं। महारानी को कष्ट करना होगा।”
”ये आर्य और इनके पाखंड।” महारानी ने कहा और नीचे उतर पड़ीं। अंगरक्षकों के नायक ने सभी अस्त्र-शस्त्र वहीं रख दिए और नंगे पैर महारानी के साथ चल पड़ा।
      उनके एक सुंदर कुटिया के प्रांगण में प्रवेश करते ही एक वन बाला कुटिया से बाहर आई। उसने महारानी को नमस्कार किया।
”क्या मैं यहां की स्वामिनी से मिल सकती हूँ?”
”क्या आपका परिचय मिलेगा?”
”अच्छा हो तुम उन्हें ही पूछने दो।” महारानी ने दर्पयुक्त मुस्कान से कहा।
      वन बाला कुटिया में चली गई।
      कुछ ही क्षणों के उपरांत एक तेजस्विनी महिला काषाय वस्त्रों में कुटिया के द्वार पर प्रकट हुईं।
”ओह! महारानी मंदोदरी, यह कुटिया तो आपके स्वागत योग्य नहीं फिर भी पधारिए।”
      तभी वन बाला ने प्रकट हो कलश से मंदोदरी को पाद्य दिया।
      पदप्रक्षालन के उपरांत मंदोदरी कुटिया में प्रविष्ट हुई। अंदर आते ही उसने कुटिया का कोना-कोना विवेचनात्मक दृष्टि से देखा और फिर उसके मुख पर एक कुटिल मुस्कान उभरी।
      वन बाला ने उसे एक चौकी पर आसन दिया और तदुपरांत कुछ फल और एक कुल्हड़ में शीतोष्ण दूध लाकर आहार के लिए प्रस्तुत किया।
      मंदोदरी ने बड़े नखरे से फल का एक टुकड़ा लिया।
”हमे आपकी इस अवस्था पर खेद है। आपका जीवन भी निरंतर संघर्ष की अंतहीन कथा प्रतीत होता है।”
      कोई उत्तर न पाने पर मंदोदरी पुनः बोली, ”सुना है आपके दो पुत्र हैं। जुड़वां हैं क्या?”
      प्रश्न में छुपे आरोप से यदि कोई चोट पहुंची हो तो वह सीता के मुख पर प्रकट न हो सकी। वहां पर तो वही भुवनमोहिनी मुस्कान थी।
”हां, जुड़वाँ ही हैं।”
”भाग्य का कैसा खेल है, अयोध्या के राजकुमार वन-वन भटक रहे हैं।” मंदोदरी ने फिर प्रहार किया।
”वन प्रांतर स्थित गुरूकुलें में शिक्षा पाना आर्यें की परम्परा है।” सीता ने सस्मित कहा।
”हां वो मैं भूल गई थी। किंतु माताएं तो गुरूकुल संभवतः नहीं जातीं।”
”आर्य स्त्रियां प्रायः अपने पितृकुल में लंबी अवधि तक निवास करती हैं।”
”महर्षि वाल्मीकि आपके पितृकुल की ओर से हैं, मुझे ज्ञात न था।”
      व्यंग का सीता की ओर से कोई उत्तर न आने पर पर्याप्त समय तक कुटिया में मौन छा गया। मौन को वन बाला ने दूध का कुल्हड़ बढ़ाते हुए भंग किया, ”इस दूध का स्वाद देखिए।”
”दूध ........ दूध वस्तुतः हमे रूचिकर तो नहीं लगता, किंतु तब भी पी लेती हूँ।”
”आपको अपने पति से रोष तो अवश्य होगा?” दूध का एक घूंट लेते हुए मंदोदरी ने पुनः कुरेदा।
”रोष, किस बात का रोष?”
      एक क्षण को मंदोदरी अवाक रह गई। किंतु वह पट्ट कूटनीतिज्ञ थी। मुस्कराई और फिर बोली ”आपको सगर्भा वन में निर्वासित कर दिया। आपका नही तो आपकी अवस्था का और अपने बच्चों का तो सोचा होता।”
”निर्वासित? कहां से निर्वासित? इस ब्रहमाण्ड में ऐसा क्या है जो अयोध्यानाथ के अधिकार से बाहर हो?”
एक बार पुनः मंदोदरी को अवाक रह जाना पड़ा। किंतु वह चुप रहने वाली कहां थी। वह तो आई ही सीता को कष्ट पहुंचाने थी। पुनः बोली, ”ठीक है, किंतु स्वयं प्रासादों के ऐश्वर्य में रहते हुए पत्नी को वन में भेज देना तो उचित प्रतीत नहीं होता।”
      सीता मुस्कराती रहीं। मानो मंदोदरी को और प्रहार करने को प्रेरित कर रहीं हों। उनके मौन और उनकी मुस्कान से मंदोदरी का हृदय ईर्ष्या की अग्नि से धधक उठा।
”आप कुछ भी कहें। मैं तो इसे महाराज रामचंद्र का अन्याय ही मानूंगी।”
”महारानी मंदोदरी, आप अतिथि हैं, किंतु मेरे पति और राजा के प्रति सम्मानपूर्वक वचन ही बोलें। मैं आपकी मान्यता को चुनौती नहीं देना चाहती। किंतु आप इतना जान लें कि रघुकुल शिरोमणि द्वारा कभी भी अन्याय नहीं हो सकता।”
      एक क्षण को मंदोदरी को उत्तर न सूझा। फिर वह बोली, ”आप ये कहना चाहती  हैं कि आप पर लांछन लगा कर उन्होने उचित किया?”
”लांछन? उन्होने लांछन लगाया? ये आप क्या कह रहीं हैं?”
      मंदोदरी को कुछ समझ नहीं आया। उसने पुनः कहा - ”आपका कहना है कि महाराज रामचंद्र ने आप पर कोई आरोप नहीं लगाया।”
”हां, अवश्य।”
”तो फिर आप यहां क्यों हैं? अयोध्या के राजमहल में क्यों नहीं?” मंदोदरी उत्कंठित स्वर में बोली।
”अच्छा, तो आप मेरे यहां होने का कारण कोई लांछन समझती हैं।”
”ऐसा तो सर्वत्र चर्चा में है।”
”क्या चर्चा में है, यह तो आपके सूत्रों पर निर्भर है। किंतु मेरे स्वामी का मेरे साथ क्या संबंध है और एक दूसरे को हम क्या और कितना समझते हैं, यह तो निश्चय ही कोई दूसरा नहीं जान सकता।”
”तो फिर उन्होने आपको देशनिकाला क्यों दिया?”
”मैने आपसे पहले भी कहा है कि ऐसा नहीं है और,” सीता एक क्षण के लिए रुकीं और फिर मंद हास के साथ बोलीं, ”वे ऐसा चाहें भी तो भी ऐसा संभव ही नहीं, मैने आपको पहले भी बताया।”
      मंदोदरी असहज हो गई। बातचीत का कोई सूत्र ही पकड़ाई में नहीं आ रहा था। मंदोदरी सदृश कूटनीति पारंगत राजमहिषी के लिए ऐसा कभी नहीं होता था। कहां तो वह सोच रही थी कि वह सीता को व्यग्र कर देगी और कहां वह बात ही नहीं चला पा रही थी।
”आप विश्राम कर लीजिए। थक गई होंगी।” सीता ने सस्मित कहा।
”नहीं, कोई थकान नहीं है। मैं तो आपसे मिलने को व्यग्र थी। आप चाहे जो कहें किंतु मुझे महाराज रामचंद्र का आपके प्रति व्यवहार सर्वथा संवेदनहीन प्रतीत होता है।”
”मेरे प्रति मेरे पति का व्यवहार समझना कठिन नहीं है। मात्र इतनी समझ पर्याप्त है कि उनका मुझपर अपार नेह है।”
”आप इसको नेह कहती हैं।” मंदोदरी हंसते हुए बोली, ”आपको वनवास और स्वयं राजप्रसाद में राजसी जीवन। अगर यह नेह है तो धन्य हैं आप।”
”नेह को आपकी संस्कृति में भोग से जाना जाता है। किंतु हमारी संस्कृति में नेह त्याग से जाना जाता है। हम आर्य मूल्यों की रक्षा, नैतिक दूरदृष्टि और परिवार के कल्याण के लिए कुछ भी त्याग सकते हैं और जिससे जितना अधिक नेह होता है, उससे उतने अधिक त्याग की अपेक्षा रखते हैं।” सीता सहज स्वर में बोलीं।
”तो फिर ये त्याग उन्होने स्वयं भी क्यों न किया? केवल आप पर त्याग का भार क्यों डाला ?”
”इसी लिए तो मैंने आपसे पहले ही कहा कि यह मेरे पति का मुझ पर नेह है। लेकिन लगता है आप इसे समझना नहीं चाहतीं।”
”मैं तो मात्र इतना देखती हूँ कि आपके पति ने आपको कष्ट में डाल दिया है और स्वयं सभी प्रकार के सुख-साधनों में रहते हैं।”
”यह आपका नहीं वरन  आपकी संस्कृति का दोष है। जिसमें मात्र सुख का साथ माना जाता है और पति-पत्नी को सुख का साथी समझा जाता है। दोनों किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना चाहते और चाहते हैं कि दूसरा ही उसका निराकरण करे, चाहे तो स्वयं ही कष्ट उठाए।”
      संस्कृति पर ही आक्षेप सुन मंदोदरी तिलमिला उठी।
”मैं समझती हूँ आप अपने पति का पक्ष ले रही हैं। उनके अनुचित कृत्य को भी उचित ठहरा रही हैं।”
”आप बातों को दोहराती बहुत हैं। मेरे पति कोई अनुचित कृत्य कभी कर ही नहीं सकते, मुझे फिर कहना पड़ रहा है। रही पक्षधरता की बात तो मैं तो उनके अतिरिक्त अपना कोई पक्ष देखती ही नहीं। पति-पत्नी का अलग-अलग पक्ष भला कैसे हो सकता है?”
”तो आपको यह उचित लगता है कि वे राजप्रासाद में आनंदभोग करें?” मंदोदरी ने सीधा प्रहार किया।
”यहां आप पुनः सत्य को नहीं देख पा रही हैं। जब हम अभिन्न हैं तो हमारे सुख-दुख भिन्न कैसे होंगे। अगर वे आनंद में हैं तो मैं भी आनंद में हूँ।”
”आप तो सैद्धांतिक बात करती हैं। भला उनके भोजन करने से आपका पेट कैसे भरेगा ?”
”आप बहुत स्थूल बात करती हैं। भोजन, वस्त्र इत्यादि बहुत प्राथमिक वस्तुएं हैं। इनका उपयोग मात्र शरीर के पोषण, रक्षण में होता है। मैं आत्मा की बात करती हूँ जो इन सब से परे है। उसी का सुख-दुख अर्थ रखता है, शेष सब व्यर्थ है।”
”यदि आत्मा की ही बात है तो फिर आपका यहां आने का क्या प्रयोजन रहा?”
”आत्मा के परिष्कार के लिए और उसके जागरण के लिए सात्विक वातावरण अपेक्षित है। तामसी, राजसी वातावरण में आत्मा उपेक्षित हो जाती है और शरीर प्रमुख हो जाता है। इस कारण अपनी संतति की आत्मा को पुष्ट करने और उनके उज्ज्वल भविष्य को प्रशस्त करने के लिए यह आवश्यक था कि मैं यहां आऊं।”
      वे एक क्षण के लिए रूकीं मुस्कराईं फिर बोलीं, ”पति-पत्नी में संतान के लिए कर्तव्य भिन्न-भिन्न हो सकते हैं फिर एक राजा मात्र अपने परिवार या संतान के ही भविष्य के लिए कार्य नहीं कर सकता। उस पर गुरूतर दायित्व होते हैं। अतः परिवार के लिए दोनों में से किसी एक को अलग डगर भी लेनी पड़ सकती है।”
”चाहे जो हो, मैं एक बात के लिए तो आपका प्रशंसा करूंगी कि आप अपने पति के पक्ष में सदैव रहेंगी चाहे उनका व्यवहार आपके प्रति कुछ भी क्यों न रहा हो।”
”मैने पहले भी कहा है हमारा पक्ष अलग-अलग नहीं है। और फिर अगर पत्नी पति के पक्ष में न होगी तो किसके पक्ष में होगी?” सीता ने मधुर मुस्कान के साथ कहा।
      मंदोदरी की कामना पूर्ण न हो सकी थी। वह यहां पर अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन करके और राम के विरूद्ध बात कर सीता को नीचा दिखाने के उद्देश्य से आई थी लेकिन उसका मनोरथ पूर्ण न हो सका। अपनी इच्छा की पूर्ति न होने से कुछ निराश मंदोदरी को वहां रूकना सह्य न हुआ। अतः वह अनायास ही उठ खड़ी हुई।
”अब चलती हूँ। आपके दर्शन हो गए। मेरा आना सफल हुआ।”
”ये मेरा सौभाग्य है कि लंका की महारानी मेरी कुटिया में पधारी।”
      मंदोदरी के साथ सीता भी कुटिया से बाहर आईं। वे दोनों कुटिया के आंगन से बाहर आ रही थीं कि तभी लव-कुश का आगमन हुआ।
”आप लंका की महारानी मंदोदरी हैं। इन्हें प्रणाम करो, पुत्र!” सीता ने पुत्रों से कहा।
      दोनों ने हाथ जोड़कर मंदोदरी को नमस्कार किया।
      दोनों प्रश्नवाचक मुद्रा में मां को देख रहे थे। गंभीर लव तो चुप रहा किंतु वाचाल कुश कहां चुप रहने वाला था। इससे पूर्व कि सीता उसकी उद्विग्नता भांप सकें, कुश बोला, ”महारानी मंदोदरी, किंतु मां इन्होने तो पूर्ण श्रृंगार किया हुआ है ? ”
      मंदोदरी पर जैसे घड़ो पानी पड़ गया। वह क्रुद्ध हो गई।
”महारानी सीता, आपके पुत्र वन में रहकर सभ्यता नहीं सीख सके हैं।”
एकाएक सीता की भृकुटि में बल पड़ गए, ”ये क्षत्रियकुमार हैं। इनसे अधिक सभ्य कोई नहीं हो सकता। ये सत्य सम्भाषण करने में काल से भी भीत नहीं होते।”
”अपने बेटों की अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की है, महाराज रामचंद्र ने।” मंदोदरी व्यंग्य से बोली।
      सीता के रोष का वारापार न रहा, ”मेरे पति ने अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य और निश्छल विकास सुनिश्चित करने के लिए अपने दांपत्य को होम कर दिया। उन्होने अपनी वासना की अग्नि में अपने पुत्रों को होम नहीं किया।”
      मंदोदरी स्तब्ध रह गई। कुटिया के भीतर अत्यंत सौम्यता से प्रत्येक प्रहार का मधुर प्रतिकार करने वाली सीता से कुटिया के प्रांगण से बाहर ऐसा प्रचंड प्रहार किए जाने की मंदोदरी को कोई अपेक्षा न थी।
”मेरे पुत्रों को सर्वश्रेष्ठ मानव व्यवहार की शिक्षा दी गई है,” सीता का रोष अभी थमा नहीं था, ”आप लंका की महारानी हैं, अतः आपसे उच्चतम मानव व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। और ऐसा ही इन बालकों ने भी किया। ये तो जानते हैं कि आप महर्षि पुलत्स्य की पुत्रवधू हैं किंतु ये यह नहीं जानते कि पितृकुल से आप दानव हैं और आपने राक्षसी जीवनशैली आकंठ अपनाई है।”
      मंदोदरी से कोई उत्तर न बन पड़ा। उसने चुपचाप सीता को नमस्कार किया और अपने रथ की ओर बढ़ गई।
      अपने स्कंधावार में लौटने तक मंदोदरी के मन में क्रोध, अपमान, ईर्ष्या, द्वेष की कुछ ऐसी अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई थी कि उसे किसी करवट शांति न थी। इसी उद्विग्न मनःस्थिति में स्कंधावार कूच हुआ और दो दिन के उपरांत वह अयोध्या पहुंच गई।
      अयोध्या पहुंचते ही उसने अपने गुप्तचरों से मंत्रणा की। किंतु अपेक्षित सूचनाएं न पा सकी। अतः उसने उन्हें पुनः निर्देशित किया कि वे महाराजा राम के निजी जीवन से संबंधित छोटी से छोटी सूचना एकत्रित कर उसे नित्य बताएं।
      विभीषण के साथ जाकर वे राज दरबार में अपनी उपस्थिति कर चुके थे। किंतु राजभवन में उनको रूकने का आमंत्रण प्राप्त नहीं हुआ। उनको अन्यत्र एक भवन में ठहरने का निर्देश मिला।
      धीरे-धीरे यज्ञ की तिथि निकट आ रही थी। किंतु मंदोदरी को गुप्तचरों से कोई आशाजनक सूचना प्राप्त नहीं हो रही थी। जो कुछ वे बताते थे उसपर मंदोदरी को विश्वास न था। भला यह कहीं संभव था कि अयोध्या से लंका पर्यन्त जिस सम्राट का आदेश चलता हो वह राजभवन में एकाकी रहता हो। जिसके राजभवन में राजमाताओं को छोड़कर किसी महिला का प्रवेश निषेध हो। जो पूर्ण निरामिष अत्यंत सादा भोजन करता हो। आर्यवृत के आर्य राजाओं में सामिष भोजन, सुरापान, नृत्य संगीत की सभाएं तो सामान्य बात थीं फिर भला राजा राम ऐसा ऋषितुल्य जीवन कैसे और क्यों जीते थे, अवश्य कोई भेद है। कुछ तो ऐसा रहस्य है जिसको छुपाया जा रहा है। इस प्रकार की ओट तो प्रायः किसी अनैतिक कार्य हेतु ही निर्मित की जाती है, मंदोदरी को सहज विश्वास था। किंतु दिन प्रतिदिन उसके ज्ञान में कोई वृद्धि न हो पा रही थी। उसे अपने गुप्तचरों पर क्रोध आ रहा था। फिर उसने महाराजा राम से मिलने के लिए अनुरोध प्रेषित किया जो कि उसके पास एक दूत द्वारा इस अनुरोध के साथ वापस आ गया कि वह प्रयोजन व्यक्त करें अन्यथा भेंट संभव नहीं।
      यज्ञ का दिन आ गया। मंदोदरी अन्य राज्यों की रानियों, राजकुमारियों आदि के साथ प्रांगण में उपस्थित थी। आर्य परम्पराओं के अनुसार राम ने यज्ञ भूमि में प्रवेश किया और गुरूजनों तदुपरांत माताओं और अंत में सभी उपस्थित समुदाय को नमस्कार कर आसन ग्रहण किया। राम के वामांग में आसन रिक्त था। मंदोदरी के होठों पर कुटिल मुस्कान खेलने लगी। अब रहस्य के उद्घाटन का समय आ गया है। तभी महल की ओर से कहार एक सुसज्जित पालकी उठाए आते दिखाई दिए। पालकी के ऊपर छत्र और चवर लिए दासियां चल रहीं थीं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि आर्य राजाओं की महारानियां यज्ञ मण्डप में प्रवेश करती थीं। आसन के समीप लाकर पालकी को रख दिया गया। और दो दासियों ने पालकी का आवरण हटाकर किसी को बाहर निकाला।
      मंदोदरी के मुख पर उत्कंठा का साम्राज्य था। वह जहां बैठी थी वहां से भली भांति देख नहीं पा रही थी कि पालकी से कौन उतरा। उसने देखा कि दासियों ने किसी राजसी वस्त्र धारण किए महिला को हाथों में उठा कर आसन पर आसीत किया।
’अच्छा आडंबर है’ मंदोदरी ने सोचा, ’चार पग चल भी नहीं सकती।’
      पुरोहितों ने मंत्रोचार प्रारंभ कर दिया। मंदोदरी उस महिला को देख पाने को उद्विग्न हो रही थी। किंतु उसके मुख पर अवगुंठन था।
      यज्ञ के कर्मकांड चलने लगे। एक स्त्री ने राम के अंगवस्त्र का ग्रंथिबंधन उस महिला के आंचल से किया। मंदोदरी को कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। वह उस स्त्री का मुख देखने को लालायित थी। यज्ञ की गतिविधियां चलती रहीं। मंदोदरी व्याकुलता से प्रतीक्षा करती रहीं।
      यज्ञ का एक अंक पूर्ण हुआ। राजा राम और महारानी सीता के जयघोष से चारणों ने पूरा यज्ञस्थल गुंजायमान कर दिया।
      ’सीता’ मंदोदरी चौंक पड़ी, ’तो लौंट आईं महारानी, कैसी बड़ी-बड़ी बातें करती थीं।’ मंदोदरी ने सोचा। उसकी कुटिल बुद्धि सभी सूचनाओं को अपनी दृष्टि से परिभाषित करने लगी। तो यह बात है। इसी लिए राम एकांत में रहते हैं। इसी लिए किसी महिला का प्रवेश निषिद्ध है। क्या आवश्यकता है ऐसे आडंबर की। लेकिन ये आर्य तो ऐसे ही हैं। कथनी में और करनी में कुछ और। अब तो महारानी से मिलना ही होगा। मंदोदरी ने सोचा। तभी जयघोष के साथ दासियों ने सीता को उठाया और पालकी की ओर ले चली। इस बार उनका मुख मंदोदरी की ओर था। मंदोदरी उठ खड़ी हुई। देवयोग से उसी समय तीव्र पवन का एक झोंका आया और सीता के मुख का अवगुंठन हट गया।
      मंदोदरी पर जैसे तड़ित घात हुआ हो। ये तो प्रतिमा है, सीता की स्वर्ण प्रतिमा।
      एक ही क्षण में मंदोदरी के सारे द्वेष भाव तिरोहित हो गए। जो कुछ सीता ने कहा था वह उसके सम्मुख था। राम का नेह, कर्तव्य, कष्ट, पीड़ा और त्याग।
      मंदोदरी का मन शांत हो गया। वह राम -सीता के दांपत्य का मर्म समझ गई। उसे उनके जीवन की उपलब्धि भी दृश्यमान हो उठी और अपने जीवन की निस्सारता भी। वह नतमस्तक हो गई। बुदबुदाई - ”नतोहम रामवल्लभाम”।



        इस आलेख का कथ्य हमारा मौलिक नहीं है, ये आदरणीय श्री रमेश चंद्र तिवारी ’विराम’ के खण्डकाव्य ’नतोहम रामवल्लभाम’ से प्रेरित है। इसमें जो कुछ भी उत्कृष्ट है, उनका है। हमारी तो मात्र प्रस्तुति है। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करने की धृष्टता नहीं कर सकते। वैसे भी वे हमारे पारिवारिक मित्र के मामा हैं, और भांजों ने भला मामाओं का आभार कब माना है?
                                                                                         
                                                       

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

  इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...! इसलि ए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए ...