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शनिवार, 8 दिसंबर 2018


अरे ...रे..रे ..गज़ब.
प्रेम कथा और प्रेत कथा पढ़ने में मुझे सदैव समान भय लगता है. यही कारण है कि मित्रों के इस आग्रह पर कि पुस्तक में अवधी-भोजपुरी का प्रचुर प्रयोग हुआ है मैंने ‘इश्क बकलोल’ खरीद तो ली लेकिन जब भी पढ़ने का प्रयास किया, एकाध पृष्ठ से आगे न बढ़ पाया.
किन्तु विगत माह में कई अपराध थ्रिलर चट कर जाने के उपरांत अनायास ही स्वाद बदलने के लिए किसी गंभीर साहित्य के स्थान पर इस पुस्तक को पढ़ने का साहस जुटाया.
एक अध्याय पढ़ा तो फिर तो पुस्तक छोड़ते न बना, पूरी पुस्तक एक ही बैठक में ख़त्म करके उठा. पुस्तक निश्चय ही केवल  प्रेम कथा नहीं है. प्रेम कथा तो एक माध्यम था देश में कई स्थानों पर चल रही क्षेत्रवाद की दूषित सोच से पनप रहे सामाजिक ताने बाने को नष्ट करने वाले नासूर को उजागर करना. लेखक अपने लक्ष्य में शत प्रति शत सफल रहे हैं.
लेखक ने उपन्यास को एक विस्तृत दृष्टिकोण से लिखा है जो अंत तक किसी भी स्थल पर संकुचित नहीं होने पाता. इतना सधा हुआ लेखन यदि प्रथम उपन्यास ही में हो तो लेखक से भविष्य में उत्कृष्ट रचना कर्म की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं.
भाषा की दृष्टि से उपन्यास में मराठी और भोजपुरी का प्रयोग कुछ अधिक है, यद्यपि इससे कथानक को आंचलिक पुट मिला और परिवेश तथा मनोदशा अधिक स्वाभाविकता से प्रकट हुईं, किन्तु इन दोनों ही भाषाओँ को न जानने वाले पाठक को दोहरा व्यवधान भी झेलना पड़ता है. हालाँकि, मराठी का अनुवाद भी दे ही दिया गया है लेकिन सब-टाइटल वाली फिल्म से वह संतुष्टि कहाँ? इतना होने पर भी मुझे इन दोनों भाषाओं का प्रयोग कहीं खटका नहीं, बल्कि इससे मैं समृद्ध ही हुआ.
इस उपन्यास की एक खूबी इसके जीवंत चरित्र हैं. कोई भी पात्र अस्वाभाविक और गढ़ा हुआ नहीं लगता- सभी पात्र प्रामाणिक लगते हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के परिवेश को लेखक पूर्ण सटीकता से उकेरने में सफल रहे हैं. काशी दर्शन इस उपन्यास का एक अतिरिक्त आकर्षण है.
जिस बात ने मुझे सर्वाधिक मोह लिया, वह है पुस्तक की द्रुत गति. पुस्तक में कहानी इतनी तेजी से भागती है कि पाठक को गर्दन उठाने की मोहलत नहीं देती. उत्सुकता सदैव बनी रहती है और अंत तक अंत का अनुमान लगा पाना यदि असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है. पूरी तरह से यह पुस्तक एक थ्रिलर का आनंद देती है यद्यपि है प्रेम कथा ही.

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018


“......उद्धव मन न भये दस बीस”
एक प्रमुदित प्रशंसक के उद्गार


श्री सत्य व्यास की नवीनतम कृति चौरासी एक असाधारण सूफी प्रेमाख्यान है जो स्थूल और सूक्ष्म अथवा लौकिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथ प्रवाहित है. जिसमें एक छोर पर निश्छल प्रेम है तो दुसरे छोर पर वीभत्स घृणा. ऐसी कृति हिंदी में अगर दूसरी है तो मेरी नज़र से नहीं गुज़री.
उपन्यास में जहाँ  स्थूल /लौकिक अर्थों में एक सजीव दृश्यात्मक प्रेमकथा स्पंदित है जिस पर बन रही फिल्म उसको कितना उजागर कर पायेगी, कहना कठिन है. वहीँ   सूक्ष्म/ अध्यात्मिक अर्थों में जो प्रेम अंगड़ाईयाँ ले रहा है उसकी अनुभूति अनिर्वचनीय है. वह तो अनुभव की ही वस्तु है. प्रथम अध्याय से ही जो स्वत्व का जो भाव प्रस्फुटित होता है वह क्रमशः विस्तृत होते हुए अंतिम अध्याय में प्रेम की रहस्यात्मकता को उसके सम्पूर्ण प्रभाव के साथ प्रकट करता है.
हर अध्याय को लेखक ने एक सूफियाना शीर्षक दिया है जो अध्याय के कथ्य को तो उजागर करता ही है एक अनुपम औत्सुक्य भी सृजित करता है. यूँ तो लेखक अपनी विगत दोनों रचनाओं में भी अध्यायों के नामों का पुस्तक के नाम से एक गहन सम्बन्ध स्थापित करते रहे हैं जो कि इस कृति में भी उपस्थित है. लेकिन इस कृति में यह कला  एक अलग ही आयाम छूती है – कथ्य को परिवेश प्रदान करती है. यह अनन्य है. अपूर्व है.
नगर को सूत्रधार की भूमिका में प्रस्तुत करने का प्रयोग सफल है. क्योंकि यह जिस सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है, राष्ट्र की जिस अवधारणा का द्योतक है उस भाव को अन्यथा व्यक्त करना और इस सहानुबंध को स्थापित करना कदाचित इतना सहज भी न रहता और इतना संप्रेषणीय भी न रहता.  
लेखक अपने सूत्र वाक्यों के लिए भी जाने जाते हैं. इस कृति में उनका वह दार्शनिक स्वरूप अपने उत्कर्ष पर है जो कि इस रचना के तेवर के सर्वथा अनुकूल है.
भारतीय संस्कृति में 84 विभिन्न गूढ़ अर्थों से संपृक्त है. आश्चर्य यह है कि हर उस गूढार्थ का चित्रण इस उपन्यास में कहीं न कहीं मिलता है. इतने छोटे कलेवर में इतने विशद भावों  की ऐसी  सटीक  व्यंजना कर ले जाने की लेखक अतुल्य प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हूँ. 
  भाषा पर लेखक का असाधारण आधिकार है तभी तो इस उपन्यास का हर अध्याय इतना सजीव है कि जैसे आप फिल्म देख रहे हों. भाषा का ऐसा अनोखा प्रयोग है कि आप पढ़ते नहीं देखते हैं.
वैसे तो उपन्यास विशेषताओं का आगार है किन्तु दृश्यात्मकता इस उपन्यास की  प्रमुख विशेषत बन कर उभरी है. हर अध्याय, हर प्रसंग और हर भाव इतने दृश्यात्मक रूप से आता है कि पाठक के सम्मुख सजीव चित्र उभर आता है.
एक अन्य विशेषता जिसका उल्लेख किये बिना रहा नहीं जाता, वह इस उपन्यास के चरम उत्कर्ष वाले अध्याय की अवस्थिति है. आपको याद पड़ता है आपने किस उपन्यास/ फिल्म में क्लाइमेक्स गंगासागर में चित्रित पढ़ा/ देखा हो. गंगा सागर का जो सजीव चित्रण इस उपन्यास में मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है. गंगासागर -धर्म, अध्यात्म, रहस्य और प्रेम का अद्भुत प्रतीक बन कर अमिट छाप छोड़ता है.
बरसों बाद एक निर्मल आख्यान पढने को मिला, आभार, सत्य जी.
   

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018


हत्या
हृदयेश (2 जुलाई 1930-31 अक्टूबर 2016) की एक कालजयी रचना

                  हृदयेश का पूरा नाम हृदय नारायण मेहरोत्रा था.
इन्होने  ने गाँठ, हत्या, एक कहानी अंतहीन, सफेद घोड़ा काला सवार, साँड, पुनर्जन्म, दंडनायक, पगली घटी, हवेली सहित 13 उपन्यास लिखे थे. कई कहानी संग्रह और आत्मकथा भी लिखी. उनके उपन्यास ‘सांड़’ और ‘सफेद घोड़ा काला सवार’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साहित्य भूषण और पहल सम्मान से नवाजा जा चुका है.

               ‘हत्या इनका दूसरा उपन्यास था जो  अगस्त १९७१ में प्रकाशित हुआ था. यह उपन्यास अपने विषय, गठन और गहरी अंतर्दृष्टि के कारण हिंदी का एक उत्कृष्ट उपन्यास है. यह आकार में बेशक छोटा है किन्तु इसका परिदृश्य विशाल है. एक साथ ये गहन और विस्तृत दोनो है. आश्चर्य यह है कि गहन  होते हुए भी भटकता नहीं और विस्तृत होते हुए स्थूल नहीं होता.

               ‘हत्या हृदयेश की संवेदनात्मक परिपक्वता का जीवंत दस्तावेज है. स्वतंत्रता के उपरांत हम कहाँ मरते गए और कहाँ दूसरों को मारते गए; किन अपराधों के लिए पुरस्कृत हुए और किन आदर्शों के लिए दण्डित-उपन्यास इन सब की बड़ी निस्संगता से पड़ताल करता है और सब कुछ बड़े रोचक और प्रभावी ढंग से उदघाटित कर देता है .

            ‘हत्या में हत्याओं के इतने विविध प्रकार उदघाटित किये गए हैं कि पाठक सन्न रह जाता है. जैसे जैसे पाठक उपन्यास में धंसता है उसकी चेतना को यह विलक्षण उपन्यास अनेक धरातलों पर जिस आतंक से घेरता है वह लेखक के अद्वितीय कौशल का सशक्त साक्ष्य है.

          एक छोटे से गाँव की ज़िन्दगी को केंद्र बनाकर लिखा गया ये उपन्यास उस समय की सामाजिक स्थिति और परिवेश को अत्यंत सहजता से दृश्यमान कर देता है. विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य की जिजीविषा और छटपटाहट का सजीव चित्र उकेरते हुए भी मजाल है कि हृदयेश कहीं भावुक हो जाएँ. पक्षधरता तो उन्होंने सीखी ही नहीं, वे शोषित को भी उतनी ही निस्पृहता से प्रस्तुत करते हैं जितनी निस्पृहता से एक शोषक को.


                               आइये, आज इस महान कथाकार की पुण्यतिथि पर उसका स्मरण करें.

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018


 खाकी वर्दियों का जंगल

श्री ककरलापुड़ी नरसिम्हा योग पतंजलि जिन्हें प्यार से सभी के. एन. वाय. पतंजलि कहा करते थे, तेलुगु के सिद्धहस्त कथाकारों में गिने जाते हैं. उनकी रचनाओं का तेलुगु साहित्य में विशिष्ट स्थान है. 

उनका चर्चित उपन्यास “खाकी वनम “ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें पुलिस तंत्र के सबसे निचले सोपान पर काम कर रहे पुलिस के सिपाहियों की दयनीय दशा और अमानवीय कार्य अवस्थाओं का जीवंत चित्रण मिलता है. यद्यपि कहानी आन्ध्र प्रदेश के एक कसबे में घटित होती दर्शायी गई है तथापि ये सारे देश के पुलिस तंत्र का प्रतिनिधित्व करती है.


उपन्यास का प्रारम्भ अर्दली की ड्यूटी भुगता रहे एक सिपाही के वर्णन से होता है जिसे पुलिस अधीक्षक (एस. पी.) की पत्नी द्वारा एक बच्ची की पॉटी धोने का आदेश दिया जाता है. इस एक घटना के माध्यम से इन पुलिसकर्मियों की अमानवीय कार्य स्थिति का सटीक, प्रभावी और सजीव दृश्य प्रस्तुत करते हुए लेखक ने पुलिस कर्मियों के विद्रोह की भूमिका रच दी है.


उपन्यास बहुत तेज गति से चलता है और पुलिस तंत्र में अंतर्निहित शोषण और पक्षपात का सजीव दस्तावेज बन कर उभरता है.


उपन्यास एक थ्रिलर का आनंद देता है. आद्योपांत कथा अत्यंत द्रुत गति से भागती है और पाठक को सांस लेने की मोहलत नहीं देती.


वर्ष १९८० में तेलुगु में प्रकाशित इस पुस्तक का रोचक हिंदी अनुवाद डॉ. के. वी. नरसिंह राव द्वारा किया गया है जो अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली से “खाकी वर्दियों का जंगल” के नाम से  प्रकाशित हुआ था. पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण भी उपलब्ध है .


इस पुस्तक को पढना एक झकझोरने वाले अनुभव से गुजरना है .


शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

संवेदनशील कहानियों का गुलदस्ता – The ज़िन्दगी


श्री अंकुर मिश्र की सद्यप्रकाशित पुस्तक उत्कृष्ट कहानियों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें आधुनिक जीवन की परिस्थितियों के मध्य मानवीय संवेदनाओं के अनेक रंग अपनी विशिष्ट आभा से प्रकट हो रहे हैं. पुस्तक दो भागों में है –प्रथम भाग में ६ कहानियां हैं तो द्वितीय भाग में १० लघुकथाएं.
कहानियों में आज की कार्यालयीन संस्कृति का जीवंत चित्रण मिलता है. आज की कार्य संस्कृति के तनाव और उसके मनुष्यों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का अत्यंत सटीक चित्रण इन कहानियों में सजीव रूप में मिलता है. पहली कहानी “अभी जिंदा हूँ मैं”  में मानव के मशीन  बनते जा रहे स्वभाव के मध्य मानवता के बचे रहने की सम्भावना को रेखांकित किया गया है. कहानी श्री नज़ीर अकबराबादी की नज्म “आदमीनामा” का स्मरण करा देती है.
“लाल महत्वाकांक्षाएं” इसी कार्यालयीन संकृति की चूहा दौड़ में फंसे माता-पिता की संतान की दयनीय स्थिति को पूर्ण भयावहता के साथ सामने लाती है. कहानी का अंत इस कहानी को कमजोर करता है. लेखक को इस पर अधिक धीरज से काम करना था.
“आत्महत्या” कहानी एक प्रेरक कहानी है. विषम परिस्थितियों में एक स्त्री के उठ खड़े होने की गाथा. स्त्री स्वातंत्र्य को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हुई सुंदर कहानी.
“द्विसंवाद” और “तबादला” आज के जीवन के दोगलेपन को उजागर करती लघुकथाएं हैं तो “गलत सही” एक प्रश्न खड़ा करती है.
 कहानियों की भाषा सरल लेकिन प्रभावी है. शैली में एक रोचकता है जो पुस्तक को छोड़ने नहीं देती. पुस्तक एक ही बैठक में पठनीय है, बल्कि पढ़ डालने को बाध्य करती है. ये एक ऐसी पुस्तक है जिसे आप बार –बार पढना चाहेंगे क्योंकि एक बार पढने के उपरांत पुस्तक कहीं न कहीं आपसे एक अपनापा स्थापित कर लेगी.
पुस्तक की साज सज्जा और विषयवस्तु इतनी सार्थक है कि इस पुस्तक को आप सहेज कर अपने संग्रह में रखना चाहेंगे.

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

जादुई चश्मे


लब्धप्रतिष्ठ लेखिका डॉ मंजरी शुक्ला का बाल कथा संग्रह "जादुई चश्मे" अभी सूरज पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित
हुआ है। इस संग्रह में १४ प्रेरक बाल कथाएं संकलित हैं। प्रत्येक कहानी अत्यंत रोचक शैली और सरल किन्तु समृद्ध भाषा में लिखी गयी है। प्रत्येक कहानी बाल मन में मानवोचित व्यवहार के संस्कार रोपित करने में सक्षम है।  

इन कहानियों के भावों के अनुरूप सुंदर चित्र इस संग्रह के सौन्दर्य, प्रभाव और रोचकता में अभिवृद्धि करते हैं।  यह संग्रह बच्चों के मन में पठन- पाठन की रूचि विकसित करने और उनको उनको एक अच्छा मानव बनने का संस्कार देने में सहायक होगी। 


आज अंग्रेजी माध्यम से पढने वाले बच्चों में हिंदी के प्रति कोई रूचि विकसित नहीं  हो पा रही  है।  यह पुस्तक बच्चों में हिंदी के प्रति रुझान बढाने में उपयोगी  सिद्ध होगी। इसलिए ये किताब बच्चों के लिए सर्वोत्तम उपहार है। 


डॉ शुक्ला अरसे से बाल साहित्य के सृजन में जुटी हुई हैं, हम उनसे ऐसी ही और रचनाओं की अपेक्षा करते हैं क्योंकि हिंदी में स्तरीय बाल साहित्य की नितांत कमी है। 


इस स्तरीय प्रकाशन के लिए लेखिका, चित्रकारों, संपादकों और प्रकाशक सभी को ढेरों बधाइयाँ। 



बुधवार, 3 अक्तूबर 2018

असाधारण संगीतकार की उतनी ही असाधारण जीवनी

अमर संगीतकार श्री ओ. पी. नैय्यर के असाधारण जीवन पर केन्द्रित पुस्तक "दुनिया से निराला हूँ, जादूगर  मतवाला हूँ " उनके व्यक्तित्व की भांति असाधारण है।  फिर चाहे वह पुस्तक का असाधारण आकार हो या उसकी प्रस्तुति।

जब पहले  पहल इस पुस्तक को पढ़ा तो मंत्रमुग्ध रह गया।  पुस्तक जो कि ४१ छोटे -छोटे अध्यायों में अत्यंत लाघव से प्रस्तुत की गयी है, एक ऐसा खज़ाना है जो कि इस महान  संगीतकार के प्रशंसकों को तो मुग्ध करेगी ही, मुझ जैसे संगीत के ज्ञान से शून्य व्यक्ति को भी अपने मोहपाश में जकड़ लेगी।
और ऐसा जकड़  लेगी कि छोड़ते न बनेगी।

जो लेखक श्री पराग डिमरी जी से परिचित हैं, वे जानते हैं कि पराग जी की वाणी पर्वत से निसृत होते निर्झर की भांति द्रुत प्रवाहमयी होती है।  आश्चर्य यह है कि पुस्तक में भी यह गति आद्योपांत कहीं भी बाधित नहीं होती वरन तीव्र ही होती है.
इस पुस्तक में शब्दों की बाजीगरी तो आप कहीं न पाएंगे किन्तु शब्दों का प्रवाह आपको साँस लेने की मोहलत भी न देगा।

दूसरी जो बात चकित करती है, वह है लेखक का निस्पृह रवैया। लेखक ने अपने महबूब संगीतकार को सही ठहराने के तर्क नहीं गढ़े।  उन्होंने  उन्हें वैसा ही प्रस्तुत किया, जैसा तथ्यों में पाया। ये एक दुर्लभ उपलब्धि है।  इतने पर भी लेखक का उनके प्रति सम्मान कहीं कम नहीं होता बल्कि वह पाठक के समक्ष  भी  उतने ही सम्माननीय बने रहते हैं।  यहाँ पर यह भी दृष्टव्य  है कि लेखक ने उनके विरोधियों या उनसे असहमत लोगों को भी कहीं नकारात्मक चित्रित नहीं किया है बल्कि यह लिखा है कि वे भी ग़लत नहीं कहे जा सकते।  दो विपरीत पक्षों को सामान रूप से सकारात्मक चित्रित कर पाने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है।  कमाल का कौशल है, अतुल्य। 

इस विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि लेखक ने अनेक ऐसे मामलों में, जो विवाद उत्पन्न कर सकते थे, अत्यंत सतर्कता का परिचय दिया है और बिना तथ्यों का लोप किये असाधारण संतुलन साधा है।  लेखक चाहते  तो इन विवादस्पद विषयों को कथ्य को रसीला और रंगीन बनाए में प्रयुक्त कर लेते, इससे पुस्तक को कहीं अधिक प्रचार मिलता क्योंकि इन बिन्दुओं पर खूब चर्चा  होती। अगर लेखक ने ऐसा किया होता तो आज चहुँ और लेखक और पुस्तक की ही चर्चा हो रही होती। किन्तु लेखक इस प्रलोभन से बच कर  निकल गए।  इतना संयम साध  लेने के लिए लेखक को साधु-साधु कहने को जी करता है।  लेकिन इतना होने पर भी तथ्यों को छिपाया नहीं गया बल्कि बड़ी निस्संगता और निष्पक्षता से यथावत प्रस्तुत कर दिया गया है।
जब बात तथ्यों की आती है तो कहना होगा कि लेखक ने पूरी पुस्तक में तथ्यों की झड़ी लगा दी है, जो उनके वर्षों के अनथक परिश्रम की परिचायक है। अगर लेखक पराग डिमरी न होते तो इतने तथ्यों से तो सत्खंडी जीवनी लिखी जाती। तथ्य अगर द्रव होते तो निश्चय जानिये पुस्तक से टपक रहे होते, बह रहे होते।

लेकिन इतनी शानदार किताब में प्रूफ की गलतियाँ बहुतायत में हैं जो कभी कभी व्यवधान उत्पन्न करती हैं। पुस्तक में चित्रों पर भी पुस्तक के डिज़ाइनर द्वारा  कोई भी काम नहीं किया गया है।  कुछ चित्र मूल रूप में  अच्छे  नहीं होंगे, कुछ ख़राब भी हो सकते हैं  किन्तु इतने पर भी उनकी गुणवत्ता और प्रस्तुति में सुधार अपेक्षित है। आशा है कि पुस्तक के रीप्रिंट में इन बातों का ध्यान रखा जायेगा जो पुस्तक की शोभा में वृद्धि करेगी।

निश्चय ही अब भी  बहुत  से तथ्य/प्रसंग छूट गए होंगे जिन्हें लेखक पुस्तक के आगामी संस्करणों में सहेज सकेंगे।

कामना है कि यह संग्रहणीय पुस्तक हार्डबाउंड में अति शीघ्र आये।

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

  इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...! इसलि ए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए ...