अरे ...रे..रे ..गज़ब.
प्रेम कथा और प्रेत
कथा पढ़ने में मुझे सदैव समान भय लगता है. यही कारण है कि मित्रों के इस आग्रह पर कि
पुस्तक में अवधी-भोजपुरी का प्रचुर प्रयोग हुआ है मैंने ‘इश्क बकलोल’ खरीद तो ली लेकिन
जब भी पढ़ने का प्रयास किया, एकाध पृष्ठ से आगे न बढ़ पाया.
किन्तु विगत माह में
कई अपराध थ्रिलर चट कर जाने के उपरांत अनायास ही स्वाद बदलने के लिए किसी गंभीर
साहित्य के स्थान पर इस पुस्तक को पढ़ने का साहस जुटाया.
एक अध्याय पढ़ा तो
फिर तो पुस्तक छोड़ते न बना, पूरी पुस्तक एक ही बैठक में ख़त्म करके उठा. पुस्तक निश्चय
ही केवल प्रेम कथा नहीं है. प्रेम कथा तो
एक माध्यम था देश में कई स्थानों पर चल रही क्षेत्रवाद की दूषित सोच से पनप रहे
सामाजिक ताने बाने को नष्ट करने वाले नासूर को उजागर करना. लेखक अपने लक्ष्य में
शत प्रति शत सफल रहे हैं.
लेखक ने उपन्यास को
एक विस्तृत दृष्टिकोण से लिखा है जो अंत तक किसी भी स्थल पर संकुचित नहीं होने पाता.
इतना सधा हुआ लेखन यदि प्रथम उपन्यास ही में हो तो लेखक से भविष्य में उत्कृष्ट
रचना कर्म की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं.
भाषा की दृष्टि से
उपन्यास में मराठी और भोजपुरी का प्रयोग कुछ अधिक है, यद्यपि इससे कथानक को आंचलिक
पुट मिला और परिवेश तथा मनोदशा अधिक स्वाभाविकता से प्रकट हुईं, किन्तु इन दोनों
ही भाषाओँ को न जानने वाले पाठक को दोहरा व्यवधान भी झेलना पड़ता है. हालाँकि,
मराठी का अनुवाद भी दे ही दिया गया है लेकिन सब-टाइटल वाली फिल्म से वह संतुष्टि
कहाँ? इतना होने पर भी मुझे इन दोनों भाषाओं का प्रयोग कहीं खटका नहीं, बल्कि इससे
मैं समृद्ध ही हुआ.
इस उपन्यास की एक
खूबी इसके जीवंत चरित्र हैं. कोई भी पात्र अस्वाभाविक और गढ़ा हुआ नहीं लगता- सभी
पात्र प्रामाणिक लगते हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के परिवेश को लेखक पूर्ण सटीकता से
उकेरने में सफल रहे हैं. काशी दर्शन इस उपन्यास का एक अतिरिक्त आकर्षण है.
जिस बात ने मुझे
सर्वाधिक मोह लिया, वह है पुस्तक की द्रुत गति. पुस्तक में कहानी इतनी तेजी से
भागती है कि पाठक को गर्दन उठाने की मोहलत नहीं देती. उत्सुकता सदैव बनी रहती है
और अंत तक अंत का अनुमान लगा पाना यदि असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है. पूरी तरह से
यह पुस्तक एक थ्रिलर का आनंद देती है यद्यपि है प्रेम कथा ही.