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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018


“......उद्धव मन न भये दस बीस”
एक प्रमुदित प्रशंसक के उद्गार


श्री सत्य व्यास की नवीनतम कृति चौरासी एक असाधारण सूफी प्रेमाख्यान है जो स्थूल और सूक्ष्म अथवा लौकिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथ प्रवाहित है. जिसमें एक छोर पर निश्छल प्रेम है तो दुसरे छोर पर वीभत्स घृणा. ऐसी कृति हिंदी में अगर दूसरी है तो मेरी नज़र से नहीं गुज़री.
उपन्यास में जहाँ  स्थूल /लौकिक अर्थों में एक सजीव दृश्यात्मक प्रेमकथा स्पंदित है जिस पर बन रही फिल्म उसको कितना उजागर कर पायेगी, कहना कठिन है. वहीँ   सूक्ष्म/ अध्यात्मिक अर्थों में जो प्रेम अंगड़ाईयाँ ले रहा है उसकी अनुभूति अनिर्वचनीय है. वह तो अनुभव की ही वस्तु है. प्रथम अध्याय से ही जो स्वत्व का जो भाव प्रस्फुटित होता है वह क्रमशः विस्तृत होते हुए अंतिम अध्याय में प्रेम की रहस्यात्मकता को उसके सम्पूर्ण प्रभाव के साथ प्रकट करता है.
हर अध्याय को लेखक ने एक सूफियाना शीर्षक दिया है जो अध्याय के कथ्य को तो उजागर करता ही है एक अनुपम औत्सुक्य भी सृजित करता है. यूँ तो लेखक अपनी विगत दोनों रचनाओं में भी अध्यायों के नामों का पुस्तक के नाम से एक गहन सम्बन्ध स्थापित करते रहे हैं जो कि इस कृति में भी उपस्थित है. लेकिन इस कृति में यह कला  एक अलग ही आयाम छूती है – कथ्य को परिवेश प्रदान करती है. यह अनन्य है. अपूर्व है.
नगर को सूत्रधार की भूमिका में प्रस्तुत करने का प्रयोग सफल है. क्योंकि यह जिस सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है, राष्ट्र की जिस अवधारणा का द्योतक है उस भाव को अन्यथा व्यक्त करना और इस सहानुबंध को स्थापित करना कदाचित इतना सहज भी न रहता और इतना संप्रेषणीय भी न रहता.  
लेखक अपने सूत्र वाक्यों के लिए भी जाने जाते हैं. इस कृति में उनका वह दार्शनिक स्वरूप अपने उत्कर्ष पर है जो कि इस रचना के तेवर के सर्वथा अनुकूल है.
भारतीय संस्कृति में 84 विभिन्न गूढ़ अर्थों से संपृक्त है. आश्चर्य यह है कि हर उस गूढार्थ का चित्रण इस उपन्यास में कहीं न कहीं मिलता है. इतने छोटे कलेवर में इतने विशद भावों  की ऐसी  सटीक  व्यंजना कर ले जाने की लेखक अतुल्य प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हूँ. 
  भाषा पर लेखक का असाधारण आधिकार है तभी तो इस उपन्यास का हर अध्याय इतना सजीव है कि जैसे आप फिल्म देख रहे हों. भाषा का ऐसा अनोखा प्रयोग है कि आप पढ़ते नहीं देखते हैं.
वैसे तो उपन्यास विशेषताओं का आगार है किन्तु दृश्यात्मकता इस उपन्यास की  प्रमुख विशेषत बन कर उभरी है. हर अध्याय, हर प्रसंग और हर भाव इतने दृश्यात्मक रूप से आता है कि पाठक के सम्मुख सजीव चित्र उभर आता है.
एक अन्य विशेषता जिसका उल्लेख किये बिना रहा नहीं जाता, वह इस उपन्यास के चरम उत्कर्ष वाले अध्याय की अवस्थिति है. आपको याद पड़ता है आपने किस उपन्यास/ फिल्म में क्लाइमेक्स गंगासागर में चित्रित पढ़ा/ देखा हो. गंगा सागर का जो सजीव चित्रण इस उपन्यास में मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है. गंगासागर -धर्म, अध्यात्म, रहस्य और प्रेम का अद्भुत प्रतीक बन कर अमिट छाप छोड़ता है.
बरसों बाद एक निर्मल आख्यान पढने को मिला, आभार, सत्य जी.
   

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