- रमाकान्त मिश्र एवं श्रीमती रेखा मिश्र
वन प्रांतर में प्रवेश करते ही महारानी को अपूर्व
शांति का अनुभव हुआ। ऐसा नहीं था कि वन पूर्णतः निस्पंद था किंतु पक्षियों की चहचहाहट
और वृक्षों की सरसराहट से मानो संगीत की सृष्टि होती थी। थोड़ी दूर चलकर रथवान ने रथ
रोक दिया। अश्वारोही अंगरक्षक आगे खड़े हुए थे। अंगरक्षकों के नायक ने आकर निवेदन किया,
”महारानी की जय हो। आर्यों के नियमानुसार अब आगे अश्व, रथ यहां तक कि पादुकाएं भी वर्जित
हैं। महारानी को कष्ट करना होगा।”
”ये
आर्य और इनके पाखंड।” महारानी ने कहा और नीचे उतर पड़ीं। अंगरक्षकों के नायक ने सभी
अस्त्र-शस्त्र वहीं रख दिए और नंगे पैर महारानी के साथ चल पड़ा।
उनके एक सुंदर कुटिया के प्रांगण में प्रवेश
करते ही एक वन बाला कुटिया से बाहर आई। उसने महारानी को नमस्कार किया।
”क्या
मैं यहां की स्वामिनी से मिल सकती हूँ?”
”क्या
आपका परिचय मिलेगा?”
”अच्छा
हो तुम उन्हें ही पूछने दो।” महारानी ने दर्पयुक्त मुस्कान से कहा।
वन बाला कुटिया में चली गई।
कुछ ही क्षणों के उपरांत एक तेजस्विनी महिला
काषाय वस्त्रों में कुटिया के द्वार पर प्रकट हुईं।
”ओह!
महारानी मंदोदरी, यह कुटिया तो आपके स्वागत योग्य नहीं फिर भी पधारिए।”
तभी वन बाला ने प्रकट हो कलश से मंदोदरी को पाद्य
दिया।
पदप्रक्षालन के उपरांत मंदोदरी कुटिया में प्रविष्ट
हुई। अंदर आते ही उसने कुटिया का कोना-कोना विवेचनात्मक दृष्टि से देखा और फिर उसके
मुख पर एक कुटिल मुस्कान उभरी।
वन बाला ने उसे एक चौकी पर आसन दिया और तदुपरांत
कुछ फल और एक कुल्हड़ में शीतोष्ण दूध लाकर आहार के लिए प्रस्तुत किया।
मंदोदरी ने बड़े नखरे से फल का एक टुकड़ा लिया।
”हमे
आपकी इस अवस्था पर खेद है। आपका जीवन भी निरंतर संघर्ष की अंतहीन कथा प्रतीत होता है।”
कोई उत्तर न पाने पर मंदोदरी पुनः बोली, ”सुना
है आपके दो पुत्र हैं। जुड़वां हैं क्या?”
प्रश्न में छुपे आरोप से यदि कोई चोट पहुंची
हो तो वह सीता के मुख पर प्रकट न हो सकी। वहां पर तो वही भुवनमोहिनी मुस्कान थी।
”हां,
जुड़वाँ ही हैं।”
”भाग्य
का कैसा खेल है, अयोध्या के राजकुमार वन-वन भटक रहे हैं।” मंदोदरी ने फिर प्रहार किया।
”वन
प्रांतर स्थित गुरूकुलें में शिक्षा पाना आर्यें की परम्परा है।” सीता ने सस्मित कहा।
”हां
वो मैं भूल गई थी। किंतु माताएं तो गुरूकुल संभवतः नहीं जातीं।”
”आर्य
स्त्रियां प्रायः अपने पितृकुल में लंबी अवधि तक निवास करती हैं।”
”महर्षि
वाल्मीकि आपके पितृकुल की ओर से हैं, मुझे ज्ञात न था।”
व्यंग का सीता की ओर से कोई उत्तर न आने पर पर्याप्त
समय तक कुटिया में मौन छा गया। मौन को वन बाला ने दूध का कुल्हड़ बढ़ाते हुए भंग किया,
”इस दूध का स्वाद देखिए।”
”दूध
........ दूध वस्तुतः हमे रूचिकर तो नहीं लगता, किंतु तब भी पी लेती हूँ।”
”आपको
अपने पति से रोष तो अवश्य होगा?” दूध का एक घूंट लेते हुए मंदोदरी ने पुनः कुरेदा।
”रोष,
किस बात का रोष?”
एक क्षण को मंदोदरी अवाक रह गई। किंतु वह पट्ट
कूटनीतिज्ञ थी। मुस्कराई और फिर बोली ”आपको सगर्भा वन में निर्वासित कर दिया। आपका
नही तो आपकी अवस्था का और अपने बच्चों का तो सोचा होता।”
”निर्वासित?
कहां से निर्वासित? इस ब्रहमाण्ड में ऐसा क्या है जो अयोध्यानाथ के अधिकार से बाहर
हो?”
एक बार पुनः मंदोदरी को अवाक रह जाना पड़ा। किंतु वह
चुप रहने वाली कहां थी। वह तो आई ही सीता को कष्ट पहुंचाने थी। पुनः बोली, ”ठीक है,
किंतु स्वयं प्रासादों के ऐश्वर्य में रहते हुए पत्नी को वन में भेज देना तो उचित प्रतीत
नहीं होता।”
सीता मुस्कराती रहीं। मानो मंदोदरी को और प्रहार
करने को प्रेरित कर रहीं हों। उनके मौन और उनकी मुस्कान से मंदोदरी का हृदय ईर्ष्या
की अग्नि से धधक उठा।
”आप
कुछ भी कहें। मैं तो इसे महाराज रामचंद्र का अन्याय ही मानूंगी।”
”महारानी
मंदोदरी, आप अतिथि हैं, किंतु मेरे पति और राजा के प्रति सम्मानपूर्वक वचन ही बोलें।
मैं आपकी मान्यता को चुनौती नहीं देना चाहती। किंतु आप इतना जान लें कि रघुकुल शिरोमणि
द्वारा कभी भी अन्याय नहीं हो सकता।”
एक क्षण को मंदोदरी को उत्तर न सूझा। फिर वह
बोली, ”आप ये कहना चाहती हैं कि आप पर लांछन
लगा कर उन्होने उचित किया?”
”लांछन?
उन्होने लांछन लगाया? ये आप क्या कह रहीं हैं?”
मंदोदरी को कुछ समझ नहीं आया। उसने पुनः कहा
- ”आपका कहना है कि महाराज रामचंद्र ने आप पर कोई आरोप नहीं लगाया।”
”हां,
अवश्य।”
”तो
फिर आप यहां क्यों हैं? अयोध्या के राजमहल में क्यों नहीं?” मंदोदरी उत्कंठित स्वर
में बोली।
”अच्छा,
तो आप मेरे यहां होने का कारण कोई लांछन समझती हैं।”
”ऐसा
तो सर्वत्र चर्चा में है।”
”क्या
चर्चा में है, यह तो आपके सूत्रों पर निर्भर है। किंतु मेरे स्वामी का मेरे साथ क्या
संबंध है और एक दूसरे को हम क्या और कितना समझते हैं, यह तो निश्चय ही कोई दूसरा नहीं
जान सकता।”
”तो
फिर उन्होने आपको देशनिकाला क्यों दिया?”
”मैने
आपसे पहले भी कहा है कि ऐसा नहीं है और,” सीता एक क्षण के लिए रुकीं और फिर मंद हास
के साथ बोलीं, ”वे ऐसा चाहें भी तो भी ऐसा संभव ही नहीं, मैने आपको पहले भी बताया।”
मंदोदरी असहज हो गई। बातचीत का कोई सूत्र ही
पकड़ाई में नहीं आ रहा था। मंदोदरी सदृश कूटनीति पारंगत राजमहिषी के लिए ऐसा कभी नहीं
होता था। कहां तो वह सोच रही थी कि वह सीता को व्यग्र कर देगी और कहां वह बात ही नहीं
चला पा रही थी।
”आप
विश्राम कर लीजिए। थक गई होंगी।” सीता ने सस्मित कहा।
”नहीं,
कोई थकान नहीं है। मैं तो आपसे मिलने को व्यग्र थी। आप चाहे जो कहें किंतु मुझे महाराज
रामचंद्र का आपके प्रति व्यवहार सर्वथा संवेदनहीन प्रतीत होता है।”
”मेरे
प्रति मेरे पति का व्यवहार समझना कठिन नहीं है। मात्र इतनी समझ पर्याप्त है कि उनका
मुझपर अपार नेह है।”
”आप
इसको नेह कहती हैं।” मंदोदरी हंसते हुए बोली, ”आपको वनवास और स्वयं राजप्रसाद में राजसी
जीवन। अगर यह नेह है तो धन्य हैं आप।”
”नेह
को आपकी संस्कृति में भोग से जाना जाता है। किंतु हमारी संस्कृति में नेह त्याग से
जाना जाता है। हम आर्य मूल्यों की रक्षा, नैतिक दूरदृष्टि और परिवार के कल्याण के लिए
कुछ भी त्याग सकते हैं और जिससे जितना अधिक नेह होता है, उससे उतने अधिक त्याग की अपेक्षा
रखते हैं।” सीता सहज स्वर में बोलीं।
”तो
फिर ये त्याग उन्होने स्वयं भी क्यों न किया? केवल आप पर त्याग का भार क्यों डाला ?”
”इसी
लिए तो मैंने आपसे पहले ही कहा कि यह मेरे पति का मुझ पर नेह है। लेकिन लगता है आप
इसे समझना नहीं चाहतीं।”
”मैं
तो मात्र इतना देखती हूँ कि आपके पति ने आपको कष्ट में डाल दिया है और स्वयं सभी प्रकार
के सुख-साधनों में रहते हैं।”
”यह
आपका नहीं वरन आपकी संस्कृति का दोष है। जिसमें
मात्र सुख का साथ माना जाता है और पति-पत्नी को सुख का साथी समझा जाता है। दोनों किसी
भी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना चाहते और चाहते हैं कि दूसरा ही उसका निराकरण करे, चाहे
तो स्वयं ही कष्ट उठाए।”
संस्कृति पर ही आक्षेप सुन मंदोदरी तिलमिला उठी।
”मैं
समझती हूँ आप अपने पति का पक्ष ले रही हैं। उनके अनुचित कृत्य को भी उचित ठहरा रही
हैं।”
”आप
बातों को दोहराती बहुत हैं। मेरे पति कोई अनुचित कृत्य कभी कर ही नहीं सकते, मुझे फिर
कहना पड़ रहा है। रही पक्षधरता की बात तो मैं तो उनके अतिरिक्त अपना कोई पक्ष देखती
ही नहीं। पति-पत्नी का अलग-अलग पक्ष भला कैसे हो सकता है?”
”तो
आपको यह उचित लगता है कि वे राजप्रासाद में आनंदभोग करें?” मंदोदरी ने सीधा प्रहार
किया।
”यहां
आप पुनः सत्य को नहीं देख पा रही हैं। जब हम अभिन्न हैं तो हमारे सुख-दुख भिन्न कैसे
होंगे। अगर वे आनंद में हैं तो मैं भी आनंद में हूँ।”
”आप
तो सैद्धांतिक बात करती हैं। भला उनके भोजन करने से आपका पेट कैसे भरेगा ?”
”आप
बहुत स्थूल बात करती हैं। भोजन, वस्त्र इत्यादि बहुत प्राथमिक वस्तुएं हैं। इनका उपयोग
मात्र शरीर के पोषण, रक्षण में होता है। मैं आत्मा की बात करती हूँ जो इन सब से परे
है। उसी का सुख-दुख अर्थ रखता है, शेष सब व्यर्थ है।”
”यदि
आत्मा की ही बात है तो फिर आपका यहां आने का क्या प्रयोजन रहा?”
”आत्मा
के परिष्कार के लिए और उसके जागरण के लिए सात्विक वातावरण अपेक्षित है। तामसी, राजसी
वातावरण में आत्मा उपेक्षित हो जाती है और शरीर प्रमुख हो जाता है। इस कारण अपनी संतति
की आत्मा को पुष्ट करने और उनके उज्ज्वल भविष्य को प्रशस्त करने के लिए यह आवश्यक था
कि मैं यहां आऊं।”
वे एक क्षण के लिए रूकीं मुस्कराईं फिर बोलीं,
”पति-पत्नी में संतान के लिए कर्तव्य भिन्न-भिन्न हो सकते हैं फिर एक राजा मात्र अपने
परिवार या संतान के ही भविष्य के लिए कार्य नहीं कर सकता। उस पर गुरूतर दायित्व होते
हैं। अतः परिवार के लिए दोनों में से किसी एक को अलग डगर भी लेनी पड़ सकती है।”
”चाहे
जो हो, मैं एक बात के लिए तो आपका प्रशंसा करूंगी कि आप अपने पति के पक्ष में सदैव
रहेंगी चाहे उनका व्यवहार आपके प्रति कुछ भी क्यों न रहा हो।”
”मैने
पहले भी कहा है हमारा पक्ष अलग-अलग नहीं है। और फिर अगर पत्नी पति के पक्ष में न होगी
तो किसके पक्ष में होगी?” सीता ने मधुर मुस्कान के साथ कहा।
मंदोदरी की कामना पूर्ण न हो सकी थी। वह यहां
पर अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन करके और राम के विरूद्ध बात कर सीता को नीचा दिखाने के
उद्देश्य से आई थी लेकिन उसका मनोरथ पूर्ण न हो सका। अपनी इच्छा की पूर्ति न होने से
कुछ निराश मंदोदरी को वहां रूकना सह्य न हुआ। अतः वह अनायास ही उठ खड़ी हुई।
”अब
चलती हूँ। आपके दर्शन हो गए। मेरा आना सफल हुआ।”
”ये
मेरा सौभाग्य है कि लंका की महारानी मेरी कुटिया में पधारी।”
मंदोदरी के साथ सीता भी कुटिया से बाहर आईं।
वे दोनों कुटिया के आंगन से बाहर आ रही थीं कि तभी लव-कुश का आगमन हुआ।
”आप
लंका की महारानी मंदोदरी हैं। इन्हें प्रणाम करो, पुत्र!” सीता ने पुत्रों से कहा।
दोनों ने हाथ जोड़कर मंदोदरी को नमस्कार किया।
दोनों प्रश्नवाचक मुद्रा में मां को देख रहे
थे। गंभीर लव तो चुप रहा किंतु वाचाल कुश कहां चुप रहने वाला था। इससे पूर्व कि सीता
उसकी उद्विग्नता भांप सकें, कुश बोला, ”महारानी मंदोदरी, किंतु मां इन्होने तो पूर्ण
श्रृंगार किया हुआ है ? ”
मंदोदरी पर जैसे घड़ो पानी पड़ गया। वह क्रुद्ध
हो गई।
”महारानी
सीता, आपके पुत्र वन में रहकर सभ्यता नहीं सीख सके हैं।”
एकाएक सीता की भृकुटि में बल पड़ गए, ”ये क्षत्रियकुमार
हैं। इनसे अधिक सभ्य कोई नहीं हो सकता। ये सत्य सम्भाषण करने में काल से भी भीत नहीं
होते।”
”अपने
बेटों की अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की है, महाराज रामचंद्र ने।” मंदोदरी व्यंग्य से
बोली।
सीता के रोष का वारापार न रहा, ”मेरे पति ने
अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य और निश्छल विकास सुनिश्चित करने के लिए अपने दांपत्य
को होम कर दिया। उन्होने अपनी वासना की अग्नि में अपने पुत्रों को होम नहीं किया।”
मंदोदरी स्तब्ध रह गई। कुटिया के भीतर अत्यंत
सौम्यता से प्रत्येक प्रहार का मधुर प्रतिकार करने वाली सीता से कुटिया के प्रांगण
से बाहर ऐसा प्रचंड प्रहार किए जाने की मंदोदरी को कोई अपेक्षा न थी।
”मेरे
पुत्रों को सर्वश्रेष्ठ मानव व्यवहार की शिक्षा दी गई है,” सीता का रोष अभी थमा नहीं
था, ”आप लंका की महारानी हैं, अतः आपसे उच्चतम मानव व्यवहार की अपेक्षा की जाती है।
और ऐसा ही इन बालकों ने भी किया। ये तो जानते हैं कि आप महर्षि पुलत्स्य की पुत्रवधू
हैं किंतु ये यह नहीं जानते कि पितृकुल से आप दानव हैं और आपने राक्षसी जीवनशैली आकंठ
अपनाई है।”
मंदोदरी से कोई उत्तर न बन पड़ा। उसने चुपचाप
सीता को नमस्कार किया और अपने रथ की ओर बढ़ गई।
अपने स्कंधावार में लौटने तक मंदोदरी के मन में
क्रोध, अपमान, ईर्ष्या, द्वेष की कुछ ऐसी अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई थी कि उसे किसी करवट
शांति न थी। इसी उद्विग्न मनःस्थिति में स्कंधावार कूच हुआ और दो दिन के उपरांत वह
अयोध्या पहुंच गई।
अयोध्या पहुंचते ही उसने अपने गुप्तचरों से मंत्रणा
की। किंतु अपेक्षित सूचनाएं न पा सकी। अतः उसने उन्हें पुनः निर्देशित किया कि वे महाराजा
राम के निजी जीवन से संबंधित छोटी से छोटी सूचना एकत्रित कर उसे नित्य बताएं।
विभीषण के साथ जाकर वे राज दरबार में अपनी उपस्थिति
कर चुके थे। किंतु राजभवन में उनको रूकने का आमंत्रण प्राप्त नहीं हुआ। उनको अन्यत्र
एक भवन में ठहरने का निर्देश मिला।
धीरे-धीरे यज्ञ की तिथि निकट आ रही थी। किंतु
मंदोदरी को गुप्तचरों से कोई आशाजनक सूचना प्राप्त नहीं हो रही थी। जो कुछ वे बताते
थे उसपर मंदोदरी को विश्वास न था। भला यह कहीं संभव था कि अयोध्या से लंका पर्यन्त
जिस सम्राट का आदेश चलता हो वह राजभवन में एकाकी रहता हो। जिसके राजभवन में राजमाताओं
को छोड़कर किसी महिला का प्रवेश निषेध हो। जो पूर्ण निरामिष अत्यंत सादा भोजन करता
हो। आर्यवृत के आर्य राजाओं में सामिष भोजन, सुरापान, नृत्य संगीत की सभाएं तो सामान्य
बात थीं फिर भला राजा राम ऐसा ऋषितुल्य जीवन कैसे और क्यों जीते थे, अवश्य कोई भेद
है। कुछ तो ऐसा रहस्य है जिसको छुपाया जा रहा है। इस प्रकार की ओट तो प्रायः किसी अनैतिक
कार्य हेतु ही निर्मित की जाती है, मंदोदरी को सहज विश्वास था। किंतु दिन प्रतिदिन
उसके ज्ञान में कोई वृद्धि न हो पा रही थी। उसे अपने गुप्तचरों पर क्रोध आ रहा था।
फिर उसने महाराजा राम से मिलने के लिए अनुरोध प्रेषित किया जो कि उसके पास एक दूत द्वारा
इस अनुरोध के साथ वापस आ गया कि वह प्रयोजन व्यक्त करें अन्यथा भेंट संभव नहीं।
यज्ञ का दिन आ गया। मंदोदरी अन्य राज्यों की
रानियों, राजकुमारियों आदि के साथ प्रांगण में उपस्थित थी। आर्य परम्पराओं के अनुसार
राम ने यज्ञ भूमि में प्रवेश किया और गुरूजनों तदुपरांत माताओं और अंत में सभी उपस्थित
समुदाय को नमस्कार कर आसन ग्रहण किया। राम के वामांग में आसन रिक्त था। मंदोदरी के
होठों पर कुटिल मुस्कान खेलने लगी। अब रहस्य के उद्घाटन का समय आ गया है। तभी महल की
ओर से कहार एक सुसज्जित पालकी उठाए आते दिखाई दिए। पालकी के ऊपर छत्र और चवर लिए दासियां
चल रहीं थीं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि आर्य राजाओं की महारानियां यज्ञ मण्डप में प्रवेश
करती थीं। आसन के समीप लाकर पालकी को रख दिया गया। और दो दासियों ने पालकी का आवरण
हटाकर किसी को बाहर निकाला।
मंदोदरी के मुख पर उत्कंठा का साम्राज्य था।
वह जहां बैठी थी वहां से भली भांति देख नहीं पा रही थी कि पालकी से कौन उतरा। उसने
देखा कि दासियों ने किसी राजसी वस्त्र धारण किए महिला को हाथों में उठा कर आसन पर आसीत
किया।
’अच्छा
आडंबर है’ मंदोदरी ने सोचा, ’चार पग चल भी नहीं सकती।’
पुरोहितों ने मंत्रोचार प्रारंभ कर दिया। मंदोदरी
उस महिला को देख पाने को उद्विग्न हो रही थी। किंतु उसके मुख पर अवगुंठन था।
यज्ञ के कर्मकांड चलने लगे। एक स्त्री ने राम
के अंगवस्त्र का ग्रंथिबंधन उस महिला के आंचल से किया। मंदोदरी को कुछ भी सुनाई नहीं
पड़ रहा था। वह उस स्त्री का मुख देखने को लालायित थी। यज्ञ की गतिविधियां चलती रहीं।
मंदोदरी व्याकुलता से प्रतीक्षा करती रहीं।
यज्ञ का एक अंक पूर्ण हुआ। राजा राम और महारानी
सीता के जयघोष से चारणों ने पूरा यज्ञस्थल गुंजायमान कर दिया।
’सीता’ मंदोदरी चौंक पड़ी, ’तो लौंट आईं महारानी,
कैसी बड़ी-बड़ी बातें करती थीं।’ मंदोदरी ने सोचा। उसकी कुटिल बुद्धि सभी सूचनाओं को
अपनी दृष्टि से परिभाषित करने लगी। तो यह बात है। इसी लिए राम एकांत में रहते हैं।
इसी लिए किसी महिला का प्रवेश निषिद्ध है। क्या आवश्यकता है ऐसे आडंबर की। लेकिन ये
आर्य तो ऐसे ही हैं। कथनी में और करनी में कुछ और। अब तो महारानी से मिलना ही होगा।
मंदोदरी ने सोचा। तभी जयघोष के साथ दासियों ने सीता को उठाया और पालकी की ओर ले चली।
इस बार उनका मुख मंदोदरी की ओर था। मंदोदरी उठ खड़ी हुई। देवयोग से उसी समय तीव्र पवन
का एक झोंका आया और सीता के मुख का अवगुंठन हट गया।
मंदोदरी पर जैसे तड़ित घात हुआ हो। ये तो प्रतिमा
है, सीता की स्वर्ण प्रतिमा।
एक ही क्षण में मंदोदरी के सारे द्वेष भाव तिरोहित
हो गए। जो कुछ सीता ने कहा था वह उसके सम्मुख था। राम का नेह, कर्तव्य, कष्ट, पीड़ा
और त्याग।
मंदोदरी का मन शांत हो गया। वह राम -सीता के
दांपत्य का मर्म समझ गई। उसे उनके जीवन की उपलब्धि भी दृश्यमान हो उठी और अपने जीवन
की निस्सारता भी। वह नतमस्तक हो गई। बुदबुदाई - ”नतोहम रामवल्लभाम”।
इस
आलेख का कथ्य हमारा मौलिक नहीं है, ये आदरणीय श्री रमेश चंद्र तिवारी
’विराम’ के खण्डकाव्य ’नतोहम रामवल्लभाम’ से प्रेरित है। इसमें जो कुछ भी
उत्कृष्ट है, उनका है। हमारी तो मात्र प्रस्तुति है। हम उनके प्रति आभार
व्यक्त करने की धृष्टता नहीं कर सकते। वैसे भी वे हमारे पारिवारिक मित्र के
मामा हैं, और भांजों ने भला मामाओं का आभार कब माना है? |