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गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

 इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!




इसलिए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए भी नहीं क्योंकि, कुछ लोगों की राय में न तो यह जाने वाला और न ही आने वाला साल ‘हमारा’ है, लिहाजा हमे कुछ और सोचना चाहिए।


मान लिया, लेकिन एक साल के रूप में किसी कालखंड की धार्मिक बुनियाद में पड़े बगैर यह जायजा लेना इसलिए मजेदार है कि भाई बीते साल को क्या नाम दें और कल से दस्तक देने वाले आगत साल के लिए मन में किस तरह का स्पेस बनाए ?


चूंकि हम भारतीयों की सोच ज्यादातर मामलों में पारंपरिक होती है, इसलिए चीजों को नई नजर से देखना, समझना उसे पारिभाषित करना हमे बेकार का शगल लगता है। यूं कहने को इस बार भी तमाम लोग निवर्तमान वर्ष की शास्त्रीय समीक्षा में जुटे हैं।


बनिए के बही खाते की तरह हानि-लाभ का हिसाब पेश किया जा रहा है। कुछ ज्यादा समझदार लोगों ने नए साल के चौघडिए को अपने ढंग से बांचने और सेट करने की तैयारी भी शुरू कर दी है। लेकिन बाकी दुनिया बीत रहे साल और देहरी के बाहर खड़े साल को कछ अलग...


और दिलचस्प अंदाज में देख और समझने की कोशिश भी कर रही है। और ये अंदाज पूरे साल को महामारी के स्यापे के तौर पर देखने और छाती कूटने से जुदा है।


'Dictionary.com ने पाठको के सामने यह सवाल उछाला कि साल 2020 को अगर एक शब्द में पारिभाषित करना हो तो कैसे करेंगे?

वजह यह कि न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया  #COVID19  की महामारी से जूझती रही है। हमने साक्षात महसूसा कि कैसे एक अत्यंत सूक्षम वायरस ने पूरे विश्व को अपनी जीवन शैली बदलने पर विवश कर दिया।

यह बात अलग है कि अपने हिंदी वाले ऐसे पचड़ो में यह मानकर पड़ते ही नहीं कि बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय। बहरहाल जो जवाब मिले, वो वाकई मजेदार हैं।


पहला शब्द था - अभूतपूर्व (Unprecedented) आशय ये कि 2020 में जो कुछ घटा, वह दुनिया के लिए एकदम असाधारण और अप्रत्याशित था।


दूसरा शब्द था - पेचीदा (Entangled) साल। यानी पूरा वर्ष कई उलझनो में फसा हुआ रहा।


तीसरा शब्द था - अनूठा (Hellacious) यानी अपनी तमाम नकारात्मकताओं के बाद भी पूर्ववर्ती सालों से काफी अलग।


चौथा था-सर्वनाशी (Apocalyptic) अर्थात ऐसा साल जिसने काफी कुछ मिटाकर रख दिया।


पांचवा शब्द था – अव्यवस्था से भरा (Omnishambles), यह शब्द दरअसल ब्रिटेन में बोली जाने वाली चालू अंग्रेजी का है। इसलिए हिंदी अनुवाद में थोड़ा फर्क हो सकता है। यहां अनुवाद की प्रमाणिकता से ज्यादा अहम बात ये है कि इस बीत रहे साल को हमने किस रूप में अनुभूत किया या कर रहे हैं?


आने वाली पीढियों  को यह वर्ष किस रूप में याद रहेगा या वो इसे याद करना चाहेंगी?


पूर्वजों की मूर्खताओं के रूप में या मानवनिर्मित आपदाओं को  न्यौतने के रूप में?


मानव सभ्यता की असहायता के रूप में या फिर मनुष्य मात्र के अहंकार को मिली सजा के रूप में।


इस दृष्टि से सोचें तो वर्तमान 21 वीं सदी का यह पहला साल रहा, जिसने पूरी दुनिया को एक साथ भीतर तक हिला कर रख दिया।


ऐसा किसी हद तक पिछली सदी में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जरूर हुआ था। लेकिन कुछ देश तब भी उससे अछूते रहे थे।


अलबत्ता कोरोना के रूप में एक वायरस ने साबित कर दिया कि मानव सभ्यता उसके आगे कितनी बौनी है, परमाणु हथियार भी एक वायरस के प्रकोप के आग कितनी मामूली है। यह बात अलग है कि मनुष्य इस वायरस का भी तोड़ खोज रहा है, बल्कि खोज ही लिया है।


लेकिन यह अलार्म कायम रहेगा कि हम अपने आप के अलावा भावी जैविक राक्षसों से अभी कई लड़ाईयां लड़नी है। ये लड़ाईयां धर्मोंन्माद? नस्ली विद्वेष, जमीन के लिए युद्धों और बाजार पर वैश्विक वर्चस्व की लड़ाइयों से ज्यादा बड़ी और मनुष्य के अस्तित्व को बचाने की जिद से भरी होंगी। 


काल अनन्त है, इसिलए स्वयं पीछे मुडकर नही देखता। यह बावरा मन मनुष्य ही है, जो काल के आगे पीछे देखता है। डरता है, बहकता है फिर भी धीरे-धीरे आगे सरकता है। काल के आगे सिर झुकाते हुए भी उसे चुनौती देने का जब-तब दुस्साहस करता है।


हम एक सदी को इतिहास के आकलन की सुविधा की दृष्टि से हम दशकों में बांट लेते हैं। लेकिन यहां भी एक दिक्कत है। सदी के पहले दशक को क्या कहें?


पहली दहाई की मुश्किल यह है कि उसमें कई बार बहुत कुछ ऐसा घटता या छिपा होता है, जो आगे के नौ दशको के लिए रॉ मटेरियल की तरह काम करता है।इसलिए उसका नामकरण जरा कठिन है। अंग्रेजी में सदी के पहले दो दशकों के लिए बोलचाल की भाषा में दो शब्द सामने आए। पहला है 'The Ought' यानी ‘कुछ भी’ और दूसरा है 'The Naught' यानी शरारती ।हिंदी में इन्हें क्या कहा जाए, आप तय करें। 


ये लोग वर्ष 2020 की बैंलस शीट अपने ढंग से बना रहे हैं। बनाते रहेंगे। क्योंकि वह भी एक आधुनिक कर्मकांड है। उसके अपने-अपने एंगल है और रहेंगे। इससे हटकर अब कछ घंटो बाद ही लैंड करने वाले नए साल यानी 2021 के बारे में भी सोचें।


कोरोना की मार से खुद को सहलाता रहने वाला ये साल कुछ 'रोमाटिक' भी होगा, क्योंकि यह 21 वीं सदी का 21 वां साल होगा। यानी स्कूल-कॉलेज के हैंग ओवर से बाहर निकलने का साल। 


जो नहीं निकले, उन्हें झिंझोड़ने वाला साल, जीवन की सच्चाइयों से उनींदी आंखों के साथ दो-चार होने का साल।


आगत साल इस बात की ताकीद होगा कि वर्तमान सदी अब यह कहने की स्थिति में नहीं रहेगी कि मेरी उमर ही क्या है!


यह सदी के वयस्क होने के शुरूआती साल भी है।


बूढ़ा दिसम्बर जवां जनवरी के कदमों में बिछ रहा है,

लो इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है..!


-ब्रम्हराक्षस








सोमवार, 28 दिसंबर 2020

परत



’परत’ मूलतः एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें प्रेम को राजनीति के एक उपकरण बन जाने के आख्यान को कुशलता से अंकित किया गया है। प्रेम के काम मूलक स्वरूप के परे भी जो प्रेम के अन्य अनेक स्वरूप है उनमें से कुछ को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में उसकी गहनता और विस्तार के साथ उकेरा गया है।

'परत' व्यक्ति के स्तर पर प्रेम की कहानी है तो समाज के स्तर पर राजनीतिक चुनाव कथा। इन दो कथा सरिताओं का प्रवाह एक दूसरे से सर्वथा विलग प्रतीत होता है किन्तु  यहीं  लेखक इस रचना को अलग आयाम पर ले जाते हैं। दोनों ही कथाओं में एक जैसी घटनाएं घटित होती हैं, बस उनका आयाम अलग है।

यत पिण्डे  तत ब्रम्हाण्डे।

एक कथा के माध्यम से लेखक ने दूसरी कथा के घटित होने के परिवेश और मानस का सफल अंकन तो किया ही है।

’परत’ को पढ़ना सर्वथा नवीन आयाम में पहुँचा देता है। यहाँ यथार्थ अपने पूरे प्रभाव के साथ तो है किंतु कोई आग्रह नहीं है। यहाँ अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और आस्थाओं की समझ है और तदनुसार उसका निर्वहन भी। किंतु नवीन विचारों के प्रति उतना ही स्वागत भाव भी।

नायिका शिल्पी प्रेम के कारण दुर्गति को प्राप्त हो जाती है किंतु प्रेम के प्रति कहीं भी विरोध का स्वर मुखर नहीं होता। परम्परागत विवाह को श्रेयस्कर मानते हुए भी कहीं प्रेम विवाह को कमतर नहीं कहा गया है।

भारत के ग्रामीण परिवेश में स्थानीय निकायों के चुनावों में किस प्रकार गोलबंदी होती है और किस प्रकार विभिन्न विचारधाराओं पर वैयक्तिक संबंध भारी पड़ते है और किस प्रकार राजनीति आपस में मतभेद और विघटन उत्पन करती है, इसका सजीव चित्रण मिलता है। जो लोग ग्रामीण जीवन के सम्पर्क में हैं वे जानते हैं कि यद्यपि भारतीय ग्राम बहुत बदले हैं किन्तु अभी भी यांत्रिक नहीं हुए हैं। अभी भी संवेदनायें जीवित हैं। अभी भी राजनीति पर आपसी प्रेम भारी है। आज भी वहाँ संस्कृति और बंधुत्व स्पंदित है।

पुस्तक की एक विशेषता यथार्थवादी चित्रण के बावजूद आशावादिता का निरूपण भी है। यहाँ आकर पुस्तक एक प्रेरक दस्तावेज बन जाती है। पुस्तक तथाकथित स्थापित मूल्यों का अनुसरण नहीं करती बल्कि एक नई परम्परा का सूत्रपात करती है। एक ऐसी परम्परा जिसका बीजारोपण प्रेमचंद जी ने किया था किंतु, संभवतः एजेंडे के चलते, जिसका निर्वहन और विकास उन्होने स्वयं नहीं किया।

पुस्तक की एक अन्य विशेषता इसमें खलनायक का अभाव है। लेखक ने यह निरूपित करने में सफलता पाई है कि ’लव जिहाद’ का प्रेरक तत्व मजहब न होकर 'अर्थ' है। ये अलग बात है कि यह 'अर्थ' जो देता है वह ऐसा क्यों करता है? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है समाज में पनपी कुरीतियों को सभी लोग पहचानते हैं किंतु अलग-अलग कारणों से उसके प्रतिरोध में अक्षम है। यहां पर लेखक कुशलता पूर्वक यह दर्शाने में सफल रहे हैं कि युवा पीढ़ी में यद्यपि यह चेतना अधिक है और पुरानी पीढ़ी अपने परिवेश में ढल जाने के कारण इस चेतना को कम अनुभव कर पा रही है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विभिन्न समाजों में विवाह और स्त्रियों के प्रति व्याप्त विचारों में पर्याप्त अंतर है और इसी कारण व्यवहार और अपेक्षा में भी पर्याप्त अंतर है। रचना में इस अंतर को अत्यंत कौशल से व्यक्त किया गया है।

नायिका की एक शिक्षित सहेली श्रृद्धा है जो कि धर्म और मान्यताओं को स्वीकारने वाली एक सामान्य लडकी है तो वहीं उसकी ननद फातिमा है जो निरक्षर होकर भी अत्यंत व्यवहारिक है, अपनी सीमाओं को जानती है और श्रृद्धा से कहीं साहसी और क्रांतिकारी है। ये तीन लड़कियाँ इस कहानी की धुरी है। इन्ही के माध्यम से लेखक ने प्रतिपाद्य विषय को सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अगर ये दोनों न हों तो शिल्पी भी निर्मला होकर रह जाये।

उपन्यास फिल्मों द्वारा दशकों के प्रयासों से सफलतापूर्वक स्थापित प्रेम विषयक स्थापनाओं का प्रभावी भंडाफोड़ करता है।

यूँ तो फिल्मों के (कु) प्रभाव से कोई भी बचा नहीं है फिर भी किशोर मानस पर तो यह घातक हो जाता है। अत: यह उपन्यास नवयुवतियों एवं किशोरियों  द्वारा प्रेम और उसकी परिणति को स्पष्ट रूप से जानने हेतु अवश्य पठनीय है क्योंकि यह बतायेगा कि प्रेम पात्र की वास्तविक स्थिति जाने बिना उसके साथ चल देना कितनी भयावह स्थितियाँ उत्पन कर दे सकता है।

उपन्यास की उत्कृष्ट विषय वस्तु और रोचक वर्णन लेखक के अनुभव और एक शिक्षक की आशाओं से समृद्ध हुए हैं  किन्तु कतिपय स्थलों पर सम्पादक ने कतर ब्योंत कर दी है। संभवतः कतिपय प्रसंग किंचित विस्तार की अपेक्षा करते थे। किन्तु फिर मानव रचित ऐसी कौन सी रचना है जो सर्वथा सम्पूर्ण हो।

आज के समय में यह कृति महत्त्वपूर्ण है। रोचकप्रेरक और पठनीय है।

इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

  इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...! इसलि ए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नही जा सकगा, इसलिए ...