’परत’
मूलतः एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें प्रेम को राजनीति के एक उपकरण बन जाने के आख्यान
को कुशलता से अंकित किया गया है। प्रेम के काम मूलक स्वरूप के परे भी जो प्रेम के अन्य
अनेक स्वरूप है उनमें से कुछ को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में उसकी
गहनता और विस्तार के साथ उकेरा गया है।
'परत'
व्यक्ति के स्तर पर प्रेम की कहानी है तो समाज के स्तर पर राजनीतिक चुनाव कथा। इन दो
कथा सरिताओं का प्रवाह एक दूसरे से सर्वथा विलग प्रतीत होता है किन्तु यहीं लेखक इस
रचना को अलग आयाम पर ले जाते हैं। दोनों ही कथाओं में एक जैसी घटनाएं घटित होती हैं,
बस उनका आयाम अलग है।
यत
पिण्डे तत ब्रम्हाण्डे।
एक
कथा के माध्यम से लेखक ने दूसरी कथा के घटित होने के परिवेश और मानस का सफल अंकन तो
किया ही है।
’परत’
को पढ़ना सर्वथा नवीन आयाम में पहुँचा देता है। यहाँ यथार्थ अपने पूरे प्रभाव के साथ
तो है किंतु कोई आग्रह नहीं है। यहाँ अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और आस्थाओं की समझ
है और तदनुसार उसका निर्वहन भी। किंतु नवीन विचारों के प्रति उतना ही स्वागत भाव भी।
नायिका
शिल्पी प्रेम के कारण दुर्गति को प्राप्त हो जाती है किंतु प्रेम के प्रति कहीं भी
विरोध का स्वर मुखर नहीं होता। परम्परागत विवाह को श्रेयस्कर मानते हुए भी कहीं
प्रेम विवाह को कमतर नहीं कहा गया है।
भारत
के ग्रामीण परिवेश में स्थानीय निकायों के चुनावों में किस प्रकार गोलबंदी होती है
और किस प्रकार विभिन्न विचारधाराओं पर वैयक्तिक संबंध भारी पड़ते है और किस प्रकार
राजनीति आपस में मतभेद और विघटन उत्पन करती है, इसका सजीव चित्रण मिलता है। जो लोग
ग्रामीण जीवन के सम्पर्क में हैं वे जानते हैं कि यद्यपि भारतीय ग्राम बहुत बदले हैं
किन्तु अभी भी यांत्रिक नहीं हुए हैं। अभी भी संवेदनायें जीवित हैं। अभी भी राजनीति
पर आपसी प्रेम भारी है। आज भी वहाँ संस्कृति और बंधुत्व स्पंदित है।
पुस्तक
की एक विशेषता यथार्थवादी चित्रण के बावजूद आशावादिता का निरूपण भी है। यहाँ आकर पुस्तक
एक प्रेरक दस्तावेज बन जाती है। पुस्तक तथाकथित स्थापित मूल्यों का अनुसरण नहीं करती
बल्कि एक नई परम्परा का सूत्रपात करती है। एक ऐसी परम्परा जिसका बीजारोपण प्रेमचंद
जी ने किया था किंतु, संभवतः एजेंडे के चलते, जिसका निर्वहन और विकास उन्होने स्वयं
नहीं किया।
पुस्तक
की एक अन्य विशेषता इसमें खलनायक का अभाव है। लेखक ने यह निरूपित करने में सफलता पाई
है कि ’लव जिहाद’ का प्रेरक तत्व मजहब न होकर 'अर्थ' है। ये अलग बात है कि यह 'अर्थ'
जो देता है वह ऐसा क्यों करता है? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है समाज में पनपी कुरीतियों
को सभी लोग पहचानते हैं किंतु अलग-अलग कारणों से उसके प्रतिरोध में अक्षम है। यहां
पर लेखक कुशलता पूर्वक यह दर्शाने में सफल रहे हैं कि युवा पीढ़ी में यद्यपि यह चेतना
अधिक है और पुरानी पीढ़ी अपने परिवेश में ढल जाने के कारण इस चेतना को कम अनुभव कर
पा रही है।
यहां
यह भी उल्लेखनीय है कि विभिन्न समाजों में विवाह और स्त्रियों के प्रति व्याप्त विचारों
में पर्याप्त अंतर है और इसी कारण व्यवहार और अपेक्षा में भी पर्याप्त अंतर है। रचना
में इस अंतर को अत्यंत कौशल से व्यक्त किया गया है।
नायिका
की एक शिक्षित सहेली श्रृद्धा है जो कि धर्म और मान्यताओं को स्वीकारने वाली एक सामान्य
लडकी है तो वहीं उसकी ननद फातिमा है जो निरक्षर होकर भी अत्यंत व्यवहारिक है, अपनी
सीमाओं को जानती है और श्रृद्धा से कहीं साहसी और क्रांतिकारी है। ये तीन लड़कियाँ
इस कहानी की धुरी है। इन्ही के माध्यम से लेखक ने प्रतिपाद्य विषय को सफलतापूर्वक निरूपित
किया है। अगर ये दोनों न हों तो शिल्पी भी निर्मला होकर रह जाये।
उपन्यास
फिल्मों द्वारा दशकों के प्रयासों से सफलतापूर्वक स्थापित प्रेम विषयक स्थापनाओं का
प्रभावी भंडाफोड़ करता है।
यूँ तो फिल्मों के (कु) प्रभाव से कोई भी बचा नहीं है फिर भी किशोर मानस पर तो यह घातक हो जाता है। अत: यह उपन्यास नवयुवतियों एवं किशोरियों द्वारा प्रेम और उसकी परिणति को स्पष्ट रूप से जानने हेतु अवश्य पठनीय है क्योंकि यह बतायेगा कि प्रेम पात्र की वास्तविक स्थिति जाने बिना उसके साथ चल देना कितनी भयावह स्थितियाँ उत्पन कर दे सकता है।
उपन्यास की उत्कृष्ट विषय वस्तु और रोचक वर्णन लेखक के अनुभव और एक शिक्षक
की आशाओं से समृद्ध हुए हैं किन्तु कतिपय स्थलों पर सम्पादक ने कतर ब्योंत कर दी है।
संभवतः कतिपय प्रसंग किंचित विस्तार की अपेक्षा करते थे। किन्तु फिर मानव रचित ऐसी
कौन सी रचना है जो सर्वथा सम्पूर्ण हो।
आज
के समय में यह कृति महत्त्वपूर्ण है। रोचक, प्रेरक और पठनीय है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें