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मंगलवार, 19 दिसंबर 2017
मंगलवार, 5 सितंबर 2017
अम्मा - मेरी प्रथम शिक्षक
सारी सृष्टि में माँ ही प्रथम शिक्षक है किन्तु अम्मा बिलकुल अलग थीं.
मैं सदैव कक्षा में ही काम निपटाने वाला विद्यार्थी था. कक्षा में जब अध्यापिकाएं प्रश्न लिखाती मैं साथ ही साथ उनके उत्तर भी लिख लेता था. गणित या अंग्रेजी में तो कुछ भी समय नहीं लगता था. बाकी विषय भी मेरे लिए सरल होते थे और मैं आगे-पीछे उन्हें वहीँ निपटा लेटा था. लेकिन फिर भी कभी-कभी जब मैं कक्षा में काम नहीं निपटा पाता था तब मैं उन्हें कभी घर में नहीं करता था. लेकिन अगले दिन जब मैं कक्षा में कॉपी खोलता तो मेरा काम हुआ मिलता और वो भी मेरे हस्तलेख में. ये कारगुजारी अम्मा की होती थी. वे कब मेरे गृहकार्य को देख लेती थीं, मैं कभी नहीं जान पाया.
अम्मा किस्से कहानियों की चलती फिरती ब्रह्माण्ड कोश थीं. विश्वकोश तो उनके विशद ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है. उनको न जाने कितनी कहानियां कंठस्थ थीं. यही नहीं, एक कहानी के कितने संस्करण वे सुना सकती थीं ये तो कोई नहीं बता सकता. उन्होंने दूध ही नहीं पिलाया, कहानियां भी पिला दीं.
हमारी मान्यताएं, हमारे संस्कार और हमारी भाषा मैंने ही नहीं मेरे बेटों ने भी अम्मा से ही सीखीं.
आस्था का सबक मैंने उन से ही सीखा. अम्मा प्रायः नित्य ही अनाज साफ करने बैठती थीं. उनके बरामदे में बैठते ही गौरैयों का एक झुण्ड सा आ कर बैठ जाता था. अम्मा कुछ ख़राब तो कुछ अच्छा अनाज भी फर्श पर डाल देती थीं और गौरया उनको खाती रहती थीं. वे अम्मा से बिलकुल नहीं डरती थीं, बिलकुल उनके पास मंडराती रहती थीं. और जब अम्मा कहतीं- अच्छा अब जाओ, तो जाने कैसे वे सारी की सारी गौरैया उड़ जातीं, जैसे उनकी भाषा समझती हों.
अम्मा उनसे बात भी करती रहती थीं. मैं हँसता था. अम्मा क्या ये तुम्हारी भाषा समझती हैं? अम्मा कहती- हाँ. बिलकुल समझती हैं. मैं हँसता था.
सम्भवतः १९७४ की बात है. मेरे पिता का स्थानांतरण हो गया था और वे गोरखपुर चले गये थे. इसी बीच करवा चौथ का त्यौहार आया. इसमें सीक की आवश्यकता पड़ती है. उन दिनों आजकल की तरह ये सब बाज़ार में नहीं बिकता था. पिता जी ही इसका इंतजाम कर देते थे. लेकिन अब क्या हो? अम्मा खिन्न सी थीं. लेकिन संध्या को क्या देखते हैं कि बरामदे में सात सींके बिलकुल सही स्थिति में रखी हुयीं थीं. अम्मा प्रसन्न हो गयीं. वे समझ गयीं कि ये किसकी कारस्तानी है. उन्होंने रसोई से अनाज लाकर डाला. तत्काल गौरैया आ गयीं. जब वे दाना चुगने लगी तब अम्मा सींक ले कर भीतर गई. मैंने बहुत बड़ा सबक सीख लिया था.
अम्मा, मैं जानता हूँ तुम यहीं हो.
जब भी मैं कुछ लिखने बैठता हूँ और कहीं अटक जाता हूँ तो फिर अचानक लिखते-लिखते ही कुछ इतना बेहतरीन लिखा जाता है कि जो मैं कभी सोच भी नहीं सकता.
अम्मा, मैं जानता हूँ तुम यहीं हो.
बुधवार, 12 अप्रैल 2017
रविवार, 8 जनवरी 2017
एक आभार संवाद - श्री पराग डिमरी
नए वर्ष पर मेरे मित्र श्री पराग डिमरी का एक अनुपम, अद्भुत, सार्थक और सजीव सन्देश प्राप्त हुआ जिसने मुझे मुग्ध कर दिया और मैं इस विलक्षण सन्देश को आप सब से बाँटना चाहता हूँ।
एक आभार संवाद
उन कुछ चुनींदा विशिष्ट जनों के
साथ,जिन्होंने कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रूप में इस अदने से इंसान
को प्रभावित किया है। जीवन एक रेल यात्रा का सफर ही तो
है, जिसमें भांति भांति के पड़ाव हैं, मंजिलें हैं। कुछ घटनाएँ, दुर्घटनाएं
क्या हो जाती हैं तो अक्सर रास्ते ,मंजिलों में परिवर्तन भी आ जाता है।
जनम के साथ ही हम भी इस यात्रा में शामिल
हो गए क्योंकि यहाँ हमारे लिए जगह बनायी टिकट खरीदकर हमारे माता -पिता ने।
काफी समय तक हम इसी सोच के साथ ही यात्रा करते रहे कि वे ताउम्र इस
सफर में हमारे साथ बने रहेंगे। ,किंतु कुछ पड़ाव,स्टेशन ऐसे भी आयेंगे या
शायद आ भी चुके हैं कि जब उन्हें हमें इस यात्रा में अकेला छोड़ कर अलग
हो जाना पड़ेगा या वो शायद हमसे जुदा हो भी चुके हैं।
समय गुजरेगा,दौर बदलेंगे, बहुत सारे अन्य इस
यात्रा में हमारे सहयात्री बनेंगे और वो हमारे जीवन में बड़े महत्वपूर्ण
साबित भी होने लगेंगे जैसे कि निकट संबंधी(भाई,बहन इत्यादि), दोस्त, औलाद,
सहकर्मी और हमारा प्यार भी। इनमें भी कई, आने वाले समय में इस
सफर में हमसे जुदा होने लगेंगे और एक ना भरने वाला शून्य (vacuum) छोड़ जायेंगे, कुछ निरंतर चल रही यात्रा से
इस तरह से अलग होंगे की हमें अहसास भी नहीं
होगा कि वे अब हमारे हमराही नहीं रहे और
उनकी सीट/जगह खाली हो चुकी है।
इस यात्रा में सुख दु:ख का मिलने,बिछड़ने का,
सपनों के बुनने टूटने का, खुश नाराज़ होने का भी समावेश रहेगा। कभी सफर धीमी गति
से चलेगा, कभी उम्मीद से ज्यादा रफ्तार से चलेगा,
कोई भी यह नहीं जानता है कि कब उसे इस सफर में अपनी सीट छोड़नी पड़ सकती
है, कब इस यात्रा से अलग हो जाना पड़ेगा, इस अनिश्चितता के एक ही मायने हैं
कि जब इस सफर को तिलांजली दे कर अपनी सोट खाली करना पड़े तो
पीछे ऐसी सुनहरी यादों का संसार छोड़ कर जाए कि हम रहे ना रहे, हमसे जुड़ी यादें उस
यात्रा में निरंतर सफर करती रहें।
मुझे भी नहीं पता है कि इस यात्रा को
त्यागने की मंजिल कब आएगी किंतु फिलहाल मैंने उस टिकट को अपनी मुठ्ठियों
में भींच कर रखा है जो कि मेरे माता पिता ने मुझे दिया था और इस रेल
यात्रा के विभिन्न पड़ावों का असीम आनन्द उठा रहा हूं।
किंतु इस यात्रा में कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो कि
इस यात्रा में आपके साथ लंबे समय तक बने रहेंगे, आप जैसे हैं,उसी रूप में आपको
स्वीकार करेंगे, आपकी गलतियों ,कमियों के साथ भी आपके साथ संबंधों की गरमाहट को
बनाए रखेंगे।
उपर लिखी बातों के मद्देनजर आपका विशेष
आभार इस यात्रा में एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक सहयात्री बने रहने
के लिए और जीवन के कई पहलुओं को विशिष्ट रूप से प्रभावित करने
के लिए।
मैं आपको एवं आपके परिवार को इस सफर के बाकी पड़ाव के
हर्ष, उल्लास एवं आनन्द से सराबोर रहने के लिए ईश्वर से प्रार्थना
करता हूं। इस यात्रा में ढेरों सफलता, स्नेह की प्राप्ति हो, इसी कामना के साथ।
आपका
पराग
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