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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

अम्मा - मेरी प्रथम शिक्षक


सारी सृष्टि में माँ ही प्रथम शिक्षक है किन्तु अम्मा बिलकुल अलग थीं.

मैं सदैव कक्षा में ही काम निपटाने वाला विद्यार्थी था. कक्षा में जब अध्यापिकाएं प्रश्न लिखाती मैं साथ ही साथ उनके उत्तर भी लिख लेता था. गणित या अंग्रेजी में तो कुछ भी समय नहीं लगता था. बाकी विषय भी मेरे लिए सरल होते थे और मैं आगे-पीछे उन्हें वहीँ निपटा लेटा था. लेकिन फिर भी कभी-कभी जब मैं कक्षा में काम नहीं निपटा पाता था तब मैं उन्हें कभी घर में नहीं करता था. लेकिन अगले दिन जब मैं कक्षा में कॉपी खोलता तो मेरा काम हुआ मिलता और वो भी मेरे हस्तलेख में. ये कारगुजारी अम्मा की होती थी. वे कब मेरे गृहकार्य को देख लेती थीं, मैं कभी नहीं जान पाया.

अम्मा किस्से कहानियों की चलती फिरती ब्रह्माण्ड कोश थीं. विश्वकोश तो उनके विशद ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है. उनको न जाने कितनी कहानियां कंठस्थ थीं. यही नहीं, एक कहानी के कितने संस्करण वे सुना सकती थीं ये तो कोई नहीं बता सकता. उन्होंने दूध ही नहीं पिलाया, कहानियां भी पिला दीं.

हमारी मान्यताएं, हमारे संस्कार और हमारी भाषा मैंने ही नहीं मेरे बेटों ने भी अम्मा से ही सीखीं.

 आस्था का सबक मैंने उन से ही सीखा. अम्मा प्रायः नित्य ही अनाज साफ करने बैठती थीं. उनके बरामदे में बैठते ही गौरैयों का एक झुण्ड सा आ कर बैठ जाता था. अम्मा कुछ ख़राब तो कुछ अच्छा अनाज भी फर्श पर डाल देती थीं और गौरया उनको खाती रहती थीं. वे अम्मा से बिलकुल नहीं डरती थीं, बिलकुल उनके पास मंडराती रहती थीं. और जब अम्मा कहतीं- अच्छा अब जाओ, तो जाने कैसे वे सारी की सारी गौरैया उड़ जातीं, जैसे उनकी भाषा समझती हों.  

अम्मा उनसे बात भी करती रहती थीं. मैं हँसता था. अम्मा क्या ये तुम्हारी भाषा समझती हैं? अम्मा कहती- हाँ. बिलकुल समझती हैं. मैं हँसता था.

सम्भवतः १९७४ की बात है. मेरे पिता का स्थानांतरण हो गया था और वे गोरखपुर चले गये थे. इसी बीच करवा चौथ का त्यौहार आया. इसमें सीक की आवश्यकता पड़ती है. उन दिनों आजकल की तरह ये सब बाज़ार में नहीं बिकता था. पिता जी ही इसका इंतजाम कर देते थे. लेकिन अब क्या हो? अम्मा खिन्न सी थीं. लेकिन संध्या को क्या देखते हैं कि बरामदे में सात सींके बिलकुल सही स्थिति में रखी हुयीं थीं. अम्मा प्रसन्न हो गयीं. वे समझ गयीं कि ये किसकी कारस्तानी है. उन्होंने रसोई से अनाज लाकर डाला. तत्काल गौरैया आ गयीं. जब वे दाना चुगने लगी तब अम्मा सींक ले कर भीतर गई. मैंने बहुत बड़ा सबक सीख लिया था.

अम्मा, मैं जानता हूँ तुम यहीं हो.

जब भी मैं कुछ लिखने बैठता हूँ और कहीं अटक जाता हूँ तो फिर अचानक लिखते-लिखते ही कुछ इतना बेहतरीन लिखा जाता है कि जो मैं कभी सोच भी नहीं सकता.

अम्मा, मैं जानता हूँ तुम यहीं हो.

1 टिप्पणी:

  1. सर। अद्भुत। आपका संस्मरण गजब का है। लेकिन उस से भी गजब आपका लिखने का तरीका है। आपके स्तर पर शायद ही कभी पहुंच पाऊँ। आपके द्वारा की गई तारीफ ही मेरे लिए वरदहस्त है।

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