अमर संगीतकार श्री ओ. पी. नैय्यर के असाधारण जीवन पर केन्द्रित पुस्तक "दुनिया से निराला हूँ, जादूगर मतवाला हूँ " उनके व्यक्तित्व की भांति असाधारण है। फिर चाहे वह पुस्तक का असाधारण आकार हो या उसकी प्रस्तुति।
जब पहले पहल इस पुस्तक को पढ़ा तो मंत्रमुग्ध रह गया। पुस्तक जो कि ४१ छोटे -छोटे अध्यायों में अत्यंत लाघव से प्रस्तुत की गयी है, एक ऐसा खज़ाना है जो कि इस महान संगीतकार के प्रशंसकों को तो मुग्ध करेगी ही, मुझ जैसे संगीत के ज्ञान से शून्य व्यक्ति को भी अपने मोहपाश में जकड़ लेगी।
और ऐसा जकड़ लेगी कि छोड़ते न बनेगी।
जो लेखक श्री पराग डिमरी जी से परिचित हैं, वे जानते हैं कि पराग जी की वाणी पर्वत से निसृत होते निर्झर की भांति द्रुत प्रवाहमयी होती है। आश्चर्य यह है कि पुस्तक में भी यह गति आद्योपांत कहीं भी बाधित नहीं होती वरन तीव्र ही होती है.
इस पुस्तक में शब्दों की बाजीगरी तो आप कहीं न पाएंगे किन्तु शब्दों का प्रवाह आपको साँस लेने की मोहलत भी न देगा।
दूसरी जो बात चकित करती है, वह है लेखक का निस्पृह रवैया। लेखक ने अपने महबूब संगीतकार को सही ठहराने के तर्क नहीं गढ़े। उन्होंने उन्हें वैसा ही प्रस्तुत किया, जैसा तथ्यों में पाया। ये एक दुर्लभ उपलब्धि है। इतने पर भी लेखक का उनके प्रति सम्मान कहीं कम नहीं होता बल्कि वह पाठक के समक्ष भी उतने ही सम्माननीय बने रहते हैं। यहाँ पर यह भी दृष्टव्य है कि लेखक ने उनके विरोधियों या उनसे असहमत लोगों को भी कहीं नकारात्मक चित्रित नहीं किया है बल्कि यह लिखा है कि वे भी ग़लत नहीं कहे जा सकते। दो विपरीत पक्षों को सामान रूप से सकारात्मक चित्रित कर पाने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है। कमाल का कौशल है, अतुल्य।
इस विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि लेखक ने अनेक ऐसे मामलों में, जो विवाद उत्पन्न कर सकते थे, अत्यंत सतर्कता का परिचय दिया है और बिना तथ्यों का लोप किये असाधारण संतुलन साधा है। लेखक चाहते तो इन विवादस्पद विषयों को कथ्य को रसीला और रंगीन बनाए में प्रयुक्त कर लेते, इससे पुस्तक को कहीं अधिक प्रचार मिलता क्योंकि इन बिन्दुओं पर खूब चर्चा होती। अगर लेखक ने ऐसा किया होता तो आज चहुँ और लेखक और पुस्तक की ही चर्चा हो रही होती। किन्तु लेखक इस प्रलोभन से बच कर निकल गए। इतना संयम साध लेने के लिए लेखक को साधु-साधु कहने को जी करता है। लेकिन इतना होने पर भी तथ्यों को छिपाया नहीं गया बल्कि बड़ी निस्संगता और निष्पक्षता से यथावत प्रस्तुत कर दिया गया है।
जब बात तथ्यों की आती है तो कहना होगा कि लेखक ने पूरी पुस्तक में तथ्यों की झड़ी लगा दी है, जो उनके वर्षों के अनथक परिश्रम की परिचायक है। अगर लेखक पराग डिमरी न होते तो इतने तथ्यों से तो सत्खंडी जीवनी लिखी जाती। तथ्य अगर द्रव होते तो निश्चय जानिये पुस्तक से टपक रहे होते, बह रहे होते।
लेकिन इतनी शानदार किताब में प्रूफ की गलतियाँ बहुतायत में हैं जो कभी कभी व्यवधान उत्पन्न करती हैं। पुस्तक में चित्रों पर भी पुस्तक के डिज़ाइनर द्वारा कोई भी काम नहीं किया गया है। कुछ चित्र मूल रूप में अच्छे नहीं होंगे, कुछ ख़राब भी हो सकते हैं किन्तु इतने पर भी उनकी गुणवत्ता और प्रस्तुति में सुधार अपेक्षित है। आशा है कि पुस्तक के रीप्रिंट में इन बातों का ध्यान रखा जायेगा जो पुस्तक की शोभा में वृद्धि करेगी।
निश्चय ही अब भी बहुत से तथ्य/प्रसंग छूट गए होंगे जिन्हें लेखक पुस्तक के आगामी संस्करणों में सहेज सकेंगे।
कामना है कि यह संग्रहणीय पुस्तक हार्डबाउंड में अति शीघ्र आये।
जब पहले पहल इस पुस्तक को पढ़ा तो मंत्रमुग्ध रह गया। पुस्तक जो कि ४१ छोटे -छोटे अध्यायों में अत्यंत लाघव से प्रस्तुत की गयी है, एक ऐसा खज़ाना है जो कि इस महान संगीतकार के प्रशंसकों को तो मुग्ध करेगी ही, मुझ जैसे संगीत के ज्ञान से शून्य व्यक्ति को भी अपने मोहपाश में जकड़ लेगी।
और ऐसा जकड़ लेगी कि छोड़ते न बनेगी।
जो लेखक श्री पराग डिमरी जी से परिचित हैं, वे जानते हैं कि पराग जी की वाणी पर्वत से निसृत होते निर्झर की भांति द्रुत प्रवाहमयी होती है। आश्चर्य यह है कि पुस्तक में भी यह गति आद्योपांत कहीं भी बाधित नहीं होती वरन तीव्र ही होती है.
इस पुस्तक में शब्दों की बाजीगरी तो आप कहीं न पाएंगे किन्तु शब्दों का प्रवाह आपको साँस लेने की मोहलत भी न देगा।
दूसरी जो बात चकित करती है, वह है लेखक का निस्पृह रवैया। लेखक ने अपने महबूब संगीतकार को सही ठहराने के तर्क नहीं गढ़े। उन्होंने उन्हें वैसा ही प्रस्तुत किया, जैसा तथ्यों में पाया। ये एक दुर्लभ उपलब्धि है। इतने पर भी लेखक का उनके प्रति सम्मान कहीं कम नहीं होता बल्कि वह पाठक के समक्ष भी उतने ही सम्माननीय बने रहते हैं। यहाँ पर यह भी दृष्टव्य है कि लेखक ने उनके विरोधियों या उनसे असहमत लोगों को भी कहीं नकारात्मक चित्रित नहीं किया है बल्कि यह लिखा है कि वे भी ग़लत नहीं कहे जा सकते। दो विपरीत पक्षों को सामान रूप से सकारात्मक चित्रित कर पाने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है। कमाल का कौशल है, अतुल्य।
इस विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि लेखक ने अनेक ऐसे मामलों में, जो विवाद उत्पन्न कर सकते थे, अत्यंत सतर्कता का परिचय दिया है और बिना तथ्यों का लोप किये असाधारण संतुलन साधा है। लेखक चाहते तो इन विवादस्पद विषयों को कथ्य को रसीला और रंगीन बनाए में प्रयुक्त कर लेते, इससे पुस्तक को कहीं अधिक प्रचार मिलता क्योंकि इन बिन्दुओं पर खूब चर्चा होती। अगर लेखक ने ऐसा किया होता तो आज चहुँ और लेखक और पुस्तक की ही चर्चा हो रही होती। किन्तु लेखक इस प्रलोभन से बच कर निकल गए। इतना संयम साध लेने के लिए लेखक को साधु-साधु कहने को जी करता है। लेकिन इतना होने पर भी तथ्यों को छिपाया नहीं गया बल्कि बड़ी निस्संगता और निष्पक्षता से यथावत प्रस्तुत कर दिया गया है।
जब बात तथ्यों की आती है तो कहना होगा कि लेखक ने पूरी पुस्तक में तथ्यों की झड़ी लगा दी है, जो उनके वर्षों के अनथक परिश्रम की परिचायक है। अगर लेखक पराग डिमरी न होते तो इतने तथ्यों से तो सत्खंडी जीवनी लिखी जाती। तथ्य अगर द्रव होते तो निश्चय जानिये पुस्तक से टपक रहे होते, बह रहे होते।
लेकिन इतनी शानदार किताब में प्रूफ की गलतियाँ बहुतायत में हैं जो कभी कभी व्यवधान उत्पन्न करती हैं। पुस्तक में चित्रों पर भी पुस्तक के डिज़ाइनर द्वारा कोई भी काम नहीं किया गया है। कुछ चित्र मूल रूप में अच्छे नहीं होंगे, कुछ ख़राब भी हो सकते हैं किन्तु इतने पर भी उनकी गुणवत्ता और प्रस्तुति में सुधार अपेक्षित है। आशा है कि पुस्तक के रीप्रिंट में इन बातों का ध्यान रखा जायेगा जो पुस्तक की शोभा में वृद्धि करेगी।
निश्चय ही अब भी बहुत से तथ्य/प्रसंग छूट गए होंगे जिन्हें लेखक पुस्तक के आगामी संस्करणों में सहेज सकेंगे।
कामना है कि यह संग्रहणीय पुस्तक हार्डबाउंड में अति शीघ्र आये।
सभी बिंदुओं पर आपने बात रखी है। यह किताब मेरे भी सूची में है। लगता है इसे जल्द ही पढ़ना होगा।
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