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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

अक्षुण्ण प्रेरणा राम

श्रीजानकीहृदयसम्राट युगों युगों से भारतभूमि की प्रेरणा रहे हैं। जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं जिसके समुचित संचालन के लिए उच्चतम प्रतिमान इस प्रेरणा के अप्रतिहत स्रोत से प्राप्त न हो सके।  यही कारण है कि राम इस धरा के स्पंदन बन अभिवादन से अध्यात्म तक सर्वत्र व्याप्त हैं। उनके अगम विस्तार के गहन और उच्च्तर स्तरों तक पहुँचने की तो मेरी सामर्थ्य नहीं और न ही उनके ईश्वरीय स्वरुप का निरूपण कर सकने का साहस।  यहाँ तो उनके सर्वसुलभ चरित से सहज प्लावित होते प्रेरणा निर्झर के अविकल प्रवाह से कुछ बूँदें संजोने की अभिलाषा ही है जो ऐसा दुस्साहस कर रहा हूँ,  क्योंकि मेरा विश्वास है कि आज के जीवन में प्रेरणा की निरन्तर आवश्यकता बनी  हुई है और मेरे प्रभु इतने उदार हैं कि  मेरी धृष्टता देख उसी प्रकार मुस्कुरा देंगे जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र की चंचलता देख कर मुस्कुरा देते हैं। 

               राम के जीवन का प्रत्येक सोपान सम्पूर्ण मानवता के लिए अप्रतिहत प्रेरणा और सर्व हितकारी शिक्षाओं का सहज बोधगम्य उदाहरण है।

               कौशल्यानन्दन, अपने प्रारम्भिक जीवन से जैसे कह रहे हों कि घरेलू परिस्थितियां विपरीत हो सकती हैं।  संभव है आपको वह  प्यार दुलार न मिले जिसके आप अधिकारी हैं।  हो सकता है आपका परिवार आपके साथ न हो यहाँ तक कि  आपके पिता भी आपके पक्ष में न हों। आप भले ही उन परिस्थितियों को परिवर्तित न कर सकते हों, किन्तु, सब कुछ विपरीत होने पर भी आप निज आचरण से उन  परिस्थितियों का स्वयं पर विपरीत प्रभाव पड़ने से रोक सकते हैं।  क्योंकि  परिस्थितियों पर भले ही आपका वश न हो किन्तु उन परिस्थितियों पर आप कैसी प्रतिक्रिया करते हैं इस पर आपका मात्र आपका ही नियंत्रण होता है।

             दशरथनन्दन, का वनगमन भली भांति स्पष्ट करता है कि पुत्र को पिता का सर्वदा ही आदर करना चाहिए और उनके यश की वृद्धि के प्रयास तथा  उनके वचन का मान रखना चाहिए, चाहे पिता अपने पुत्र को वह सब न दे पाए हों जो पुत्र का अधिकार था। पुत्र को अपने वचन या कर्म से पिता को असहज स्थिति में नहीं डालना चाहिए, उसे उनके लिए धर्मसंकट की स्थिति नहीं बनने देनी चाहिए।

           भरताग्रज, यह  प्रेरणा देते हैं कि बड़े भाई को किस प्रकार छोटे भाई के स्नेह, मान और अधिकार की रक्षा करनी होती है।  छोटा भाई भले ही स्नेहवश कुछ भी क्यों न चाहता हो, बड़े भाई को सर्वथा उसके हित और कल्याण का ही कार्य करना चाहिए।

        राघव, शिक्षित होने की पराकाष्ठा हैं।  इतनी प्रबल जिज्ञासा  कि गुरु सर्वस्व सौंप कर कृतार्थ हों, इतना अभ्यास कि गुरु की सीमाएं असीम हो जाएँ और  ऐसा लाघव कि  गुरु की प्रतिष्ठा कालातीत हो जाये।

        अहिल्यातारक, यह स्थापित करते हैं कि जब -जब प्राचीन मान्यताएं अमानवीय हो जाएँ तो उनका अतिक्रमण कर नवीन मर्यादाएं कैसे गढ़ी जाएँ।

        सारंगपाणि, न्याय का उच्च्तम प्रतिमान स्थापित करते हैं।  न्याय के समक्ष छोटा - बड़ा, ब्राह्मण -शूद्र  कुछ नहीं होता। उन्होंने ब्राह्मण  रावण  और शूद्र शम्बूक  दोनों को दण्डित किया।

           रावणारि, मानव की असीमित संभावनाओं का उद्घोष हैं।  वे दिखाते हैं कि बाधाएं चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, आपके साधन कितने ही अपर्याप्त क्यों न हों, आपके समक्ष कितनी ही बड़ी शक्ति क्यों न हो - उससे निर्भय हो  जूझ जाना ही आपका कर्तव्य है।

         सुग्रीवमित्र, इस बात की प्रेरणा देते हैं कि मित्र प्राप्त  करने चाहिए, मित्रों के दोषों की अनदेखी कर उनका हित करना चाहिए और उनके उत्थान का प्रयास करना चाहिए।

          राजाराम, यह प्रतिमान स्थापित करते हैं कि किस प्रकार एक राजा के लिए उसका स्वयं का कुछ भी नहीं होता - वह मात्र  मर्यादा के समुचित पालन का प्राधिकारी, दण्डाधिकारी एवं कार्यकारी होता है।  इस प्रक्रिया में उसे कुछ भी होम करना पड़ सकता है, फिर चाहे वह वस्तु, विचार या व्यक्ति उसको कितने ही प्रिय क्यों न हों। 

        श्रीराम, भगवान् शिव के अन्यतम भक्त हैं और महादेव स्वयं श्रीराम के। रामेश्वर ही रामकथा के प्रथम ज्ञाता हैं। इस प्रकार रामचरित इस बात का जागृत प्रमाण है कि भक्ति कैसे की जाती है -ऐसे कि भगवान् स्वयं आपके भक्त हो जाएँ।  

         हनमेंद्र, सिखाते हैं कि किस  प्रकार अपने  उपकारकर्ता का ऋण स्वीकारना चाहिए।  किस प्रकार सेवक का सम्मान करना चाहिए और किस प्रकार उसे दूसरों  से सम्मान प्राप्त करने का अवसर देना चाहिए।

         लक्ष्मणाग्रज, अपने कनिष्ठ भ्राता को किस प्रकार स्वयं से अभिन्न मानना चाहिए, किस प्रकार उसको स्वयं को व्यक्त करने का अवसर देना चाहिए और किस प्रकार उसके दोष के लिए उसको किसी भी प्रकार से दोषी न मानते हुए भी  दण्ड हेतु  स्वयं को आगे कर उसकी रक्षा करनी चाहिए का उदाहरण स्वयं प्रस्तुत करते हैं।

       जानकीनाथ, काल के आर- पार प्रेम का सर्वोच्च प्रतिमान रचते हैं।  भार्या  के प्रति एकनिष्ठ  समर्पण और उसके लिए समर का आयोजन प्रत्येक में वे अद्वितीय है, अनुपम हैं, अतुल्य हैं- तभी वे जानकीनाथ हैं।

सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम -सीताराम - सीताराम - सीताराम - सीताराम-  .....।

 -रामनवमी २०७३ वि.


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